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तो कल फाईनली #डंकी भी देख ही ली— और अब इस पर कुछ कहने के लिये एलिजिबल हो गया हूँ 😉

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तो कल फाईनली #डंकी भी देख ही ली— और अब इस पर कुछ कहने के लिये एलिजिबल हो गया हूँ 😉 फिल्म रिलीज के पहले दिन से अब तक जितने भी लोगों के इस फिल्म से सम्बंधित विचार पढ़े, लगभग सभी ने इसे ख़राब फिल्म बताया। यह बड़ी वजह थी कि जहां पहले मैं इसे विद फैमिली थियेटर पर देखने जाने वाला था, निगेटिव समीक्षाओं से डर कर टेलीग्राम पर बिना पैसे खर्चे देखी… लेकिन देखते हुए एक आश्चर्य भी हुआ कि आखिर इसमें ऐसा क्या था जो फिल्म के इन शौकीन लोगों को इतना ख़राब लगा। मुझे कोई महान और कालजयी फिल्म तो नहीं लगी, न राजकुमार हिरानी की मुन्नाभाई, थ्री ईडियट और पीके के लेवल की लगी (संजू मैंने देखी नहीं— किसी महापुरुष के संघर्ष भरे जीवन की बायोपिक छोड़ कर मुझे आम सेलिब्रिटी की बायोग्राफी में दिलचस्पी नहीं), लेकिन ऐसी भी नहीं थी कि इसे ख़राब बताया जाये। मैं इमोशनल आदमी हूँ, फिल्म देखते वक़्त अक्सर भावुक दृश्यों पर आँखें बह जाती हैं (लड़के/मर्द रोते नहीं वाले दर्शन पर मेरा रत्ती भर यक़ीन नहीं), तो जब कोई फिल्म मेरी आँखें नम कर दे, उसका मतलब यही होता है कि उसने कहीं मेरे मन को छुआ है। इस फिल्म में तीन जगह मेरी आँखें भीग

तमाम मित्र कहते रहते हैं कि ऐसे वीडियो बनाइये, वैसे लिखिए तो सोशल मीडिया

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तमाम मित्र कहते रहते हैं कि ऐसे वीडियो बनाइये, वैसे लिखिए तो सोशल मीडिया से पैसे मिलने लगेंगे। मैं उनसे कहता हूँ कि पैसे बनाने की मेरी इच्छा ही नहीं है। जहां से पैसे आने पर रोजी रोटी चलती है, वह काम अपनी औकात और बुद्धि व ताकत के मुताबिक ईमानदारी से करने की कोशिश करता हूँ। कोशिश इसलिए कि जहां आप पैसे पाते हैं, वहां आपके मलिकार होते हैं, सीनियर होते हैं, उनको आपका काम पसन्द नहीं आता।  तो अगर मैं सोशल मीडिया या कहीं और पैसे के लिए काम करने लगूंगा तो खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पाऊंगा। बार बार मुझे पैसे देने वाली ऑडिएंस अपने मुताबिक हांकने की कोशिश करेगीऔर उसका दबाव रहेगा। ऐसे मित्रों को कहता हूँ कि भाई जहां इंसान रोजी रोटी के लिए काम कर रहा है, वहां तो खुद को मारकर काम करता ही है तो क्या यहां सोशल मीडिया पर भी मर जाएं? फिर जिएंगे कब? मनुष्य के मूल स्वभाव में जिस तरह से इनबिल्ट प्रेम होता है, वैसे ही जलनखोरी भी भयानक रूप से स्वभाव का हिस्सा है। इस पर तमाम कहानियां भी सुनाई जाती हैं कि लोगों को अपने बच्चे के पास हो जाने की खुशी कम होती है,पड़ोसी का बच्चा फेल हो जाए तो ज्यादा खुशी होती है। अगर

कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले-कूदे, बड़े हुए, बनवास भेजे गये, लौटकर आये

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कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले-कूदे, बड़े हुए, बनवास भेजे गये, लौटकर आये तो वहाँ राज भी किया। उनकी ज़िंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया। जहाँ खेले, वहाँ गुलेला मंदिर है। जहाँ पढ़ाई की, वहाँ वशिष्ठ मंदिर हैं। जहाँ बैठकर राज किया, वहाँ मंदिर है। जहाँ खाना खाया, वहाँ सीता रसोई है। जहाँ भरत रहे, वहाँ मंदिर है। हनुमान मंदिर है, कोप भवन है। सुमित्रा मंदिर है, दशरथ भवन है। ऐसे बीसियों मंदिर हैं, और इन सबकी उम्र 400-500 साल है। यानी ये मंदिर तब बने, जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा। अजीब है न! कैसे बनने दिये होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है। उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! कैसे अताताई थे वे जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे! शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहाँ गुलेला मंदिर बनना था, उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी। दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज़ भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के निर्माण के लिए 500 बीघा जमीन दी। निर्मोही अखाड

ऐसी किसी हरकत पर मैं टिप्पणी करने से भयभीत रहता हूँ - कल से कुछ

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ऐसी किसी हरकत पर मैं टिप्पणी करने से भयभीत रहता हूँ - कल से कुछ लोगों को भगत सिंह नज़र आ गया तो ट्विटर पर लड्की के चरित्र हनन से लेकर उसके इस उम्र तक बेरोजगार रहने और एक बैटरी रिक्शा वाले के क्रांतिकारी बनने पर कटाक्ष चल रहे हैं -- एक तरफ घर बैठ कर क्रांति करने वालों की उम्मीदें हैं तो दूसरी तरफ नफरत की कीचड़ में आँख और बुद्धि गंवा चुके मनहूसों की मूर्खता पर गर्व करने की फितरत ।  एक तो जिस तरह सुरक्षा घेरा तोड़ कर वह भी राष्ट्रवादी सांसद के दस्तखत से लोग भीतर गए , वह भी धुआँ बम ले कर , फिर सुरक्षा उपायों से भरी गेलेरी से नीचे कूद गए ---- सब कुछ लिखी हुई स्क्रिप्ट लगता है । यह सियासत का दौर वह है जहां चिदम्बरम पर जूता फैक कर कोई विधायक बन जाता है । कोई अपनी लोकप्रियता के लिए सड़क पर पिटता है -- अलग अलग राज्यों के हैं लोग - सोशल मीडिया से जुड़े ----- खैर जो भी हो -- अब बात कर लें फेसबुक क्रांतिकारियों की , याद करें शाहीन बाग आंदोलन में जेबी एक लाख की भीड़ होती थी तो कई लोग चिरोरी-सिफ़ारिश करते थे कि उनका भाषण करवा दो - नेता ही नहीं, प्रोफेसर, लेखक भी । लेकिन जब

रणजी शतक पूरा करने के बाद एग्रेसिव जश्न मनाने के कारण सरफराज खान को

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रणजी शतक पूरा करने के बाद एग्रेसिव जश्न मनाने के कारण सरफराज खान को टीम इंडिया में नहीं चुना गया। वो कहते हैं ना कि अगर किसी का काम ना खराब कर सको, तो नाम खराब कर दो। जमाने का भरोसा उस खिलाड़ी से अपने आप उठ जाएगा। फर्स्ट क्लास क्रिकेट में 80 की एवरेज रखने वाले सरफराज की जगह 42 की एवरेज रखने वाले ऋतुराज गायकवाड़ के सिलेक्शन को लेकर यही वजह सामने आई है। इस साल दिल्ली के खिलाफ रणजी मैच में शतक लगाने के बाद सरफराज का आक्रामक तरीके से जश्न मनाना चयनकर्ताओं को नागवार गुजरा। उस समय चयन समिति के तत्कालीन प्रमुख चेतन शर्मा स्टेडियम में मौजूद थे। कहा जा रहा है कि सरफराज ने सेंचुरी पूरी करने के बाद उनकी तरफ देखकर आक्रामक तरीके से जश्न मनाया था। जबकि ऐसा कुछ नहीं था। जश्न आक्रामक जरूर था, लेकिन सरफराज ने चेतन शर्मा की तरफ कोई इशारा नहीं किया था। इसी जश्न की वजह से चयनकर्ता सरफराज से नाराज हो गए और उन्हें कभी इंडियन टीम में ना चुनने की कसम खा ली।  चेतन शर्मा भारत के सबसे विवादित चयनकर्ताओं में से एक रहे। उनकी वजह से ही विराट कोहली जैसे खिलाड़ी को अपनी कप्तानी गंवानी पड़ी। कहा जाता है कि विराट कोहली

कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले-कूदे .. बड़े हुए, बनवास भेजे गए, लौट कर आए तो वहां राज भी किया, उनकी जिंदगी के हर पल को याद

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कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे, वहीं खेले-कूदे .. बड़े हुए, बनवास भेजे गए, लौट कर आए तो वहां राज भी किया, उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया, जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है, जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं । जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है । जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है। जहां भरत रहे वहां मंदिर है। हनुमान मंदिर , कोप भवन है। सुमित्रा मंदिर और दशरथ भवन है। ऐसे बीसीयों मंदिर हैं। और इन सबकी उम्र 400-500 साल है। यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल या मुसलमानों का राज रहा। अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है। उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया ! कैसे अताताई थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे। शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान शासकों ने ही दी। दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी। निर्मोही अखाड़े के ल

बाबा साहब के महापरिनिर्वाण दिवस के मौके पर उत्तर प्रदेश में बच्चो को बाबा

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बाबा साहब के महापरिनिर्वाण दिवस के मौके पर उत्तर प्रदेश में बच्चो को बाबा साहब के बारे में बताया गया था. एक जगह स्कुल मे एक टीचर को भाषण मेने लिखकर दिया था जिसमे संक्षिप्त में लिखा की; बाबा साहब का जन्म एक धनी परिवार में हुआ था. उनके पिता व नाना सेना में सूबेदार के पद पर थे, सूबेदार का पद वर्तमान के मेजर/कर्नल या इससे भी बड़ा पद था और अंग्रेजो की सेना में भारतीय लोगो के लिए निर्धारित उच्चतम पद था. बाबा साहब जिस परिवार में पैदा हुए वो परिवार हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था जिसमे ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य, शुद्र (वर्तमान के ओबीसी) से बाहर अवर्ण (outcast) था, अथार्त हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था से बाहर था लेकिन जबरदस्ती इस वर्ग को गाँव से बाहर गंदे पोखरों के पास रहने के लिए मजबूर किया गया था और उनके मानव अधिकार छीन लिए गये.  लार्ड मैकाले के निश्चयनंन्दन (छन्न छन्न कर शिक्षा) पद्धति शुरू होने के बाद शिक्षा को गुरुकुल व मदरसों के अलावा विधालय में देना शुरू किया गया। जिसमे पहले उच्च वर्गो को शिक्षा की बात कही गयी थी लेकिन आगे अंग्रजो ने सभी के लिए विधालय खोल दिए, इसलिए बाबा साहब के पिता व नाना शिक

डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन, भारत के एक ऐसा अज़ीम शख़्स का नाम है, जिसने अपना पूरा

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डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन, भारत के एक ऐसा अज़ीम शख़्स का नाम है, जिसने अपना पूरा जीवन तालीम के लिए वक़्फ़ कर दिया। 1920 में जब वो महज़ 23 साल के थे तब जामिया मिल्लिया इस्लामिया की अलीगढ़ में बुनियाद डालने में सबसे अहम रोल अदा किया। 1926 के दौर में जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया बंद होने के हालात पर पहुँच गई तो ज़ाकिर हुसैन ने कहा “मैं और मेरे कुछ साथी जामिया की ख़िदमत के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ़ करने के लिए तैयार हैं. हमारे आने तक जामिया को बंद न होने दिया जाए.” जबकि उस वक़्त वो जर्मनी में पीएचडी कर रहे थे। और 1926 में डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन अपने दो दोस्त आबिद हुसैन व मुहम्मद मुजीब के साथ जर्मनी से भारत लौटकर जामिया मिल्लिया इस्लामिया की ख़िदमत में लग गए। डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन 29 साल की उमर में 1926 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वाइस चांसलर बने और 1948 तक इस पद पर रहे। इस दौरान पूरे भारत में अब्दुल मजीद ख़्वाजा के साथ पूरे भारत का दौरा कर जामिया मिलिया इस्लामिया के लिए चंदा जमा किया और उसके लिए ओखला में अलग से ज़मीन ख़रीदी।  1 मार्च, 1935 को जामिया के सबसे छोटे छात्र अब्दुल अज़ीज़ के हाथों ओखला

खाना_और_मुसलमानम ैंने लोगों को दस रुपए की

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#खाना_और_मुसलमान मैंने लोगों को दस रुपए की आइसक्रीम की डिब्बी को चाटते हुए देखा है, मैंने लोगों को पानी पुरी खाने के बाद प्लेट में बचे हुए पानी को पीते देखा है, मैंने लोगों को दस रुपए की पानी की बोतल को तब तक लेकर घूमते हुए देखा है जब तक उसमें एक घूंट भी पानी बाकी रहता है बस ये सभी सामान उसने अपने पैसों से खरीदा हो। मैंने लोगों को ढाई सौ ग्राम गोश्त में पूरे घर को खाते देखा है और अगर उस गोश्त में हड्डी हुई तो उस हड्डी को तब तक चूसते हैं जब तक उसमें गोश्त का एक रेशा भी बाकी हो। जबकि मैंने शादी ब्याह में लोगों को बिसलेरी से हाथ धोते देखा है... एक बोतल में एक घूंट पानी पीने के बाद बोतल को फेंकते देखा है। प्याली में आई बोटियां पसंद न आने पर टेबल के नीचे बोटियां फेंकते देखा है। असल में इसका कारण ये है कि हमने इस्लाम को अपनाया ही नहीं, इस्लाम ने हमको अपनाया है। हम खुद को मुसलमान सिर्फ इसलिए मानते हैं... खुद को इस्लाम में इसलिए मानते हैं ताकि हम जन्नत में जा सकें बाकी इस्लाम का हमारा छत्तीस का आंकड़ा है।  इस्लाम कहता है कि दस्तरख्वान बिछा कर खाओ ताकि अगर उसमें खाना गिर जाए तो उसे उठा कर खाया

केरल मुझे बहुत पसंद है... यहां के पहाड़, जंगल, झीलें, झरने, बैकवाटर्स, बीच, इन

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केरल मुझे बहुत पसंद है... यहां के पहाड़, जंगल, झीलें, झरने, बैकवाटर्स, बीच, इन सबका कोई मुकाबला नहीं... पिछले साल जब मैं और दीप्ति पहली बार केरल आए, तो वह हमारी निजी यात्रा थी और यहां काम करने का कोई इरादा नहीं था... हम उत्तराखंड और हिमाचल में अच्छा काम कर रहे थे... और कश्मीर व लद्दाख में एक्सटेंशन करने जा रहे थे... केरल सीन में कहीं था ही नहीं... लेकिन यहां टूरिज्म के इन्फ्रास्ट्रक्चर को देखकर हम हैरान रह गए... यहां के लोगों के प्रोफेशनलिज्म को देखकर अच्छा लगा... किसी राज्य में कोई शहर या जगह ही टूरिस्ट फ्रेंडली होती है, लेकिन केरल तो पूरा का पूरा राज्य ही टूरिस्ट फ्रेंडली है... फिर इसका टूरिज्म का डेटा देखा... पाया कि केरल भारत में टूरिज्म के मामले में नंबर एक पर है, जबकि हमारे हिमाचल और उत्तराखंड 10 से 15वें नंबर थे...  इससे मुझे प्रेरणा मिली कि बाकी तो होता रहेगा, लेकिन हमें केरल में काम स्टार्ट कर देना है... उत्साह उत्साह में अप्रैल 2023 में हमने केरल का पहला डिपार्चर निकाल दिया... लेकिन वह केरल का ऑफ सीजन था और लोग गर्मी की छुट्टियां मनाने उत्तर के पहाड़ों में जाने की तैयारियां कर

कल एक फोन आया... उन्होंने किसी अन्य कंपनी से विंटर स्पीति का टूर पैकेज ले रखा है

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कल एक फोन आया... उन्होंने किसी अन्य कंपनी से विंटर स्पीति का टूर पैकेज ले रखा है... पैकेज लेने के बाद उन्होंने यूट्यूब पर विंटर स्पीति की वीडियो सर्च कीं, तो उन्हें हमारी भी वीडियो मिल गई... उन्होंने वीडियो देखीं और मुझे फोन कर दिया... उनका कहना था कि विंटर स्पीति को लेकर उनके कुछ डाउट थे... वे डाउट उन्होंने अपनी कंपनी से पूछे, तो कंपनी उनके डाउट क्लियर नहीं कर पाई... उन्होंने विंटर स्पीति और स्पीति सर्किट से रिलेटिड मेरी लगभग सभी वीडियो देखी हैं... इतना देखने के बाद इंसान जान ही जाता है कि हम भी स्पीति के टूर कराते हैं... उन्होंने बताया कि अब तो उन्होंने दूसरी कंपनी से पैकेज ले लिया है और पेमेंट भी कर दिया है... अगर हमारे बारे में पहले पता होता, तो वे डेफीनेटली हमसे ही पैकेज लेते... उनका डाउट AMS को लेकर था... Accute Mountain Sickness... उम्र 40 साल, कोई डायबिटीज नहीं, कोई बीपी नहीं... उन्होंने AMS के इतने भयावह किस्से सुन रखे थे कि वे डरे हुए थे... मैंने समझाया कि AMS जानलेवा नहीं है... AMS आपको सिग्नल देता है, सिमटम देता है... शुरू में हल्के सिग्नल देता है, फिर तेज सिरदर्द और उल्टी