तो कल फाईनली #डंकी भी देख ही ली— और अब इस पर कुछ कहने के लिये एलिजिबल हो गया हूँ 😉

तो कल फाईनली #डंकी भी देख ही ली— और अब इस पर कुछ कहने के लिये एलिजिबल हो गया हूँ 😉

फिल्म रिलीज के पहले दिन से अब तक जितने भी लोगों के इस फिल्म से सम्बंधित विचार पढ़े, लगभग सभी ने इसे ख़राब फिल्म बताया। यह बड़ी वजह थी कि जहां पहले मैं इसे विद फैमिली थियेटर पर देखने जाने वाला था, निगेटिव समीक्षाओं से डर कर टेलीग्राम पर बिना पैसे खर्चे देखी… लेकिन देखते हुए एक आश्चर्य भी हुआ कि आखिर इसमें ऐसा क्या था जो फिल्म के इन शौकीन लोगों को इतना ख़राब लगा। मुझे कोई महान और कालजयी फिल्म तो नहीं लगी, न राजकुमार हिरानी की मुन्नाभाई, थ्री ईडियट और पीके के लेवल की लगी (संजू मैंने देखी नहीं— किसी महापुरुष के संघर्ष भरे जीवन की बायोपिक छोड़ कर मुझे आम सेलिब्रिटी की बायोग्राफी में दिलचस्पी नहीं), लेकिन ऐसी भी नहीं थी कि इसे ख़राब बताया जाये।

मैं इमोशनल आदमी हूँ, फिल्म देखते वक़्त अक्सर भावुक दृश्यों पर आँखें बह जाती हैं (लड़के/मर्द रोते नहीं वाले दर्शन पर मेरा रत्ती भर यक़ीन नहीं), तो जब कोई फिल्म मेरी आँखें नम कर दे, उसका मतलब यही होता है कि उसने कहीं मेरे मन को छुआ है। इस फिल्म में तीन जगह मेरी आँखें भीगीं— तो कह सकता हूँ, बतौर दर्शक इसने मुझे अंत तक बांध के रखा। मुझे लगता है कि शाहरुख़ और राजू हीरानी के नाम पर लोगों ने टू मच एक्स्पेक्टेशंस पाल ली थीं, जो फुलफिल न होने के चलते उन्हें फिल्म बुरी लगी, जबकि मैं शाहरुख़ फैन नहीं हूँ और पहले ही निगेटिव रीव्यूज पढ़ कर मेरी अपेक्षाएं ख़त्म हो चुकी थीं और बिना किसी आग्रह के मैंने फिल्म देखी— तो वह मुझे अच्छी लगी। वर्ना और कोई कारण है नहीं कि ढेरों सुधि दर्शकों को जो फिल्म ख़राब लगी हो, वह मुझे अच्छी लगे।

बहरहाल, अब बात फिल्म की… इल्लीगल इमिग्रेशन एक वैश्विक समस्या है जिससे पूरी दुनिया के समर्थ देश जूझ रहे हैं। अमेरिका में मैक्सिको की तरफ से होती यह घुसपैठ अमेरिका की सबसे बड़ी सरदर्दी है और योरप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी सहित मेडीटेरेनियन के उत्तर में बसे लगभग सभी देशों में यह घुसपैठ होती है— यह घुसपैठ मेडीटेरेनियन के पूर्व में बसे और राजनीतिक संकट, अस्थिरता और गृहयुद्ध जैसे हालात से भागते लोगों की तरफ़ से होती है और साथ ही दक्षिण मेडीटेरेनियन के गरीब और पिछड़े देशों की तरफ़ से।

अपने पड़ोस में देखें पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर लोग इंग्लैंड, योरप के दूसरे देशों और गल्फ के मुख्य देशों की तरफ़ भागते हैं। भारत में पंजाब एक ऐसा राज्य है, जहां से बहुतेरे लोग किसी भी तरह कनाडा और यूएस में बस जाना चाहते हैं। अब यह डंकी मोड का सफ़र पूरी तरह अवैध होता है, जिसे इस लाईन के खिलाड़ियों के वैश्विक नेटवर्क आपरेट करते हैं और उनके एजेंट विदेश में जा बसने के इच्छुक लोगों को सुरक्षित सफ़र के सपने दिखा कर मोटी रकम वसूलते हैं। अक्सर यह सफ़र खतरनाक हालात में जानवरों की तरह लोग पूरा करते हैं। जाने कितने लोग बीच सफर में मारे जाते हैं और जाने कितने लोगों का पता नहीं चलता कि उनका क्या हुआ, ज़िंदा भी हैं या मर गये।

काफ़ी संवेदनशील विषय था, ऐसे लोग जिनके अपने कभी इस तरह के हालात से गुज़रे हों, वे इस फिल्म से रिलेट कर पायें— इसके लिये ऐसे सफ़र के और मंजिल पर पहुंचने के बाद के अवैध अप्रवासी होने के नाम पर पेश होने वाले हालात के दृश्य, पूरी सटीकता से उकेरे गये हैं और यही इस फिल्म की यूएसपी है। विक्की कौशल वाला एंगल इस एनआरआई मोह के अलग रूप को परोसता है, जिसे अगर थोड़ा और विस्तार दिया जाता तो बेहतर होता। जितने हिस्से को फिल्म की यूएसपी बताया, उतने हिस्से को छोड़ कर बाकी सब मनोरंजन के नज़रिये से गढ़ा गया है और उसमें कई स्पष्ट कमियां भी नज़र आती हैं। लोग राजू हीरानी से उनके पिछले काम के चलते एक एररफ्री और परफेक्ट स्क्रिप्ट की अपेक्षा करते हैं, इसमें ऐसा नहीं है, तो शायद अपेक्षाएं टूटने का असर लोगों के रीव्यूज पर पड़ा। सुना है कि राजू पहले स्किप्ट बुनते हैं, फिर हीरो तक पहुंचते हैं, लेकिन इस बार हीरो फाईनल होने के बाद स्क्रिप्ट गढ़ी गई है, शायद यह ग्लिच इस वजह से पैदा हुए हों।

अवैध अप्रवास, उसका एक मुश्किलों भरा रूट, डेस्टिनेशन पर पहुंचने के बाद के हालात, जहां इल्लीगल इमिग्रेंट के पास कुछ नहीं होता, कोई पहचान नहीं, कोई सरकारी मदद की उम्मीद नहीं, उस देश के सिस्टम के लिये वह बस एक भूत और एक समस्या होता है… यह बहुत संवेदनशील और अनछुआ विषय था, जिस पर हिंदी में तो शायद ही कोई फिल्म बनी है (इसे सिर्फ घुसपैठ तक सीमित न करें, वह बजरंगी भाइजान में भी थी), तो इसका ताना-बाना समय ले कर रचा जाता तो थोड़ा और बेहतर हो सकता था। खास कर तीनों मुख्य किरदारों का भारत वापसी के सफ़र के लिये रचा गया कांसेप्ट बिलकुल बचकाना था।

वे बताते हैं कि पिछले आठ साल से वे भारत के वीजा के लिये अप्लाई कर रहे हैं ताकि अपने देश आ सकें, लेकिन चूंकि उन्होंने भारत के खिलाफ़ ही राजनैतिक शरण ली थी, तो उन्हें भारत का वीजा नहीं मिल पा रहा और नतीजे में वे हार्डी (शाहरुख़) को दुबई बुलाते हैं कि वह उन्हें वहां से फिर डंकी मोड में भारत पहुंचा दे। यह फनी था… ऐसी कंडीशन में भारत का वीजा नहीं मिलेगा, लेकिन पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यामार, भूटान, नेपाल, कहीं का भी मिल जायेगा— वहां जाते और वहां से घुसपैठ कर लेते, या नेपाल और भूटान से तो घुसपैठ की ज़रूरत भी नहीं… जेब में हाथ डाल डाल के सीटी बजाते हुए बार्डर पार कर लो।

डेविड धवन जैसे निर्देशक ऐसी खामियों को खातिर में नहीं लाते, लेकिन राजू जैसे निर्देशकों से उम्मीद की जाती है कि वे ऐसी बचकानी चीज़ें न परोसें, उनका लेवल अलग है। भारत में विदेश बसने की ख्वाहिश सबसे ज्यादा पंजाब में पाई जाती है, इसलिये पंजाब को कहानी के केंद्र में रखा गया और मजबूरन सारे किरदार पंजाबी मोड में हिंदी बोलते नज़र आते हैं, जो किसी-किसी जगह इरिटेट भी करती है.. लेकिन इसे निर्देशक की मजबूरी मान कर इग्नोर किया जा सकता है। एक बात और भी है, भारत के और खास कर बाॅलिवुड के मेकअप आर्टिस्ट हद से ज्यादा पिछड़े हुए हैं… डायरेक्टर इनसे कैरेक्टर को बूढ़ा दिखाने की डिमांड करता है और यह बस इधर-उधर थोड़े सफेद बाल, भौं या दाढ़ी-मूंछ चिपका देते हैं और चेहरे की कसी हुई चमकती त्वचा वैसी ही छोड़ देते हैं जो सफेद बालों की पोल खोलती रहती है। यह बस वैसा ही लगता है, जैसे पुरानी फिल्मों में लोग केवल मस्सा लगा कर चेहरा बदल लिया करते थे।

बात एक्टिंग की करें तो कम से कम राजू की फिल्म में बुरी एक्टिंग की छूट तो किसी को नहीं होती, हां आप यह शिकायत कर सकते हैं कि फिल्म के कई दृश्यों में शाहरुख़, हार्डी सिंह के बजाय शाहरुख़ ही ज्यादा लगे— लेकिन बड़े स्टार्स के साथ यह दिक्कत कम से कम इस दौर में तो आम है, कि वे अपने स्टारडम के औरे को किरदार पर भी ओढ़े रहते हैं। गाने कोई खास अच्छे नहीं हैं, लुट-पुट गया छोड़ के मुझे तो कुछ याद भी नहीं अब, और वह भी ऐसा नहीं कि बहुत दिनों तक अपना प्रभाव बनाये रह सके। कुल मिला कर कुछ लूपहोल्स के साथ भी ठीक-ठाक फिल्म है और बांध के रखती है… शर्त बस इतनी ही है कि शाहरुख़ और राजकुमार हिरानी के नाम पर बहुत ज्यादा अपेक्षाएं पाल कर फिल्म न देखें।

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