ये जो दलाएल पैदा हुई है, क़ुरआन और हदीस में जो लिखा होगा वही मानेंगे, सबसे पहले तो इस दलाएल की दलील क़ुरआन और हदीस से साबित

ये जो दलाएल पैदा हुई है, क़ुरआन और हदीस में जो लिखा होगा वही मानेंगे, सबसे पहले तो इस दलाएल की दलील क़ुरआन और हदीस से साबित नहीं है। दूसरी बात ये की, क़ुरआन तर्जुमे से पढ़कर असल तफ़्सीर को छोड़ मनघडंत तफ़्सीर बना लेते हैं, और ज़ईफ़ हदीस को ऐसे ट्रीट करते हैं, मानो झूठ लिख दिया हो। न ही रावी को अहमियत देते हैं न सहबियों को और न ही हदीस लिखने वाले दीगर ओलेमानों को।

ज़ईफ़ हदीस रावी की उसूल से कमज़ोर मानी जाती है, मसलन कम सहबियों ने उस हदीस को बयान किया है, किसी और दीगर सहाबी ने उसी कांटेस्ट में उससे अलग हदीस बताई हो और दूसरे सहाबी ने उसकी तसतीक़ की हो, या वो हदीस क़ुरआन से अलग बात कहती हो। लेकिन किसी भी फ़िक़ के कोई भी आलीम हत्ता की वहाबी भी ज़ईफ़ हदीस को तब तक क़ाबिल ए एहतराम और उन कामों को करना अफ़ज़ल मानते हैं, जो उन ज़ईफ़ हदीस में लिखी हुई है, जब तक उसके अगेंस्ट में कोई सही हदीस नहीं मिल जाती है। लेकिन यहां तो मसला ही अलग है, महज़ खुद को सही साबित करने के लिए, हर तरह का एहतराम लोग जैसे भूल जाते हैं, सहबियों और इमाम तिर्मिज़ी जैसे दीगर ओलेमानों को झूठा साबित करने की होड़ लगा बैठते हैं, की उन्होंने अपनी हदीस की किताब में झूठी हदीस नकल कर ली है।

जब तक दुनियाँ में उस्मानिया सल्तनत थी, ऐसी बातें नहीं थी, ये सब 1920 के बाद उस्मानिया सल्तनत के ख़ात्मे से शुरू हुआ है, बिल्कुल नए दीन की तरह, मानो उससे पहले जो हमारे बाप दादा करते चले आए थे और उनके बाप दादा वो बिद्दत और शिर्क कर रहे थे, असल दीन 1920 के बाद यही लोग लेकर आएं हैं। उससे पहले, इन्ही के अलीम जो हमारे भी बाप दादा रहे हैं, उन्होंने आज इन लोगों की तरह वैसा करने वालों पर, कुफ़्र और शिर्क का फतवा जारी नहीं किया था, जैसे वो लोग शाबान की बीच शब या ईद मिलाद सेलिब्रेट कर सवाब का काम किया करते थे। करते भी कैसे वो भी तो वही कर रहे थे। जबकि आज इनकी नज़र में वो बिद्दत और शिर्क करने वाले लोग थे। यही वजह है 1920 से पहले ऐसे फतवे किसी ओलेमानों की किसी किताब में नहीं मिलता है।

और आज ये लोग कहते हैं, वो अलीम जिन्होंने 1920 से पहले जो किया और अपनी किताबों में जो लिखा, वो क्या नबी थे, जो उनकी बात मानी जाए? जबकि, आज जिन मौलवियों को सुन कर ये लोग ऐसा फतवा देते हैं, ज़रूरत पड़ने पर वही मौलवी उन ओलेमानों को अपना उस्ताद कहते हुए ज़रूरत के मुताबिक उन्ही की किताबों से रेफरेंस लेते हैं। फिर क्या वो ओलेमा नबी थे जो ज़रूरत पड़ने पर, आज ये उनकी नकल करते हैं। सीधे क़ुरआन और हदीस से बात क्यों नहीं करते? इसका एकदम सीधा सा मतलब है, तुम रेफरेंस लो तो सवाब और हम लें तो बिद्दत।

फिर एक काम करते हैं, 1920 से पहले जितने ओलेमा गुज़रे हैं, उन सभी को रद्द कर देते हैं, फिर क्या बचेगा, क़ुरआन बचेगा या हदीस? क्यों कि क़ुरआन और हदीस को अल्लाह के हुक्म से आगे बढ़ाने वाले ओलेमा तो वही है, जिनका रेफरेंस देने पर ये लोग कहते हैं, वो नबी है क्या? ये लोग पूछते हैं, किसी सहाबा ने किया था ऐसा? मैं पूछता हूँ क्या तुम्हारी ही 1920 के बाद कि कोई किताब है, जिसमे किसी एक सहाबा की सीरत और ज़िन्दगी तफ़्सीर से बयान की गई हो? 

फ़िर उसकी सनद कहाँ से आएगी? क्या कोई बता सकता है, हज़रत अली रज़िअल्लाहु अन्हु गुसल कैसे किया करते थे? नमाज़ कैसे पढ़ा करते थे, आज के वहाबियों की तरह रफादैन करते थे या देवबंदियों की तरह नहीं करते थे या सुन्नियों की तरह हैय्या लस्सला पर खड़े होते थे? ये बातें नहीं मिलेगी, वजह ये है कि, हमारे नबी ने जो अमल एक बार भी कर लिया वो बेहतर है, चाहे उस अमल को करते हुए किसी एक सहाबी ने देखा या हज़ार ने। महज़ एक ने देखा तो वो ज़ईफ़ कहलाई और वो हदीस तब तक सही है, जबतक उसके रद्द में कोई ऐसी हदीस नहीं मिल जाती जो उस पहले वाली हदीस से रावियों में ज़्यादा हो, या क़ुरआन से सीधे न टकराती हो। 

सीधा सा सवाल है, 1920 के बाद वाला इस्लाम सही है या 1920 से पहले वाला, अगर बाद वाला सही है तो, ये सवालात 1920 से पहले किसी एक किताब में भी क्यों नहीं मिलते हैं और आज जो खुले आम शिर्क और बिद्दत का फतवा देते हैं, फिर इनके इमाम कौन है? और जो हैं, फिर वो सही कैसे है? क्यों कि एक बिद्दति शिर्क करने वाला मुसलमान तो नहीं हो सकता है, बल्कि उसके लिए बेशुमार लानतें और गुनाह है। फ़िर इन लोगों तक ईमान कैसे पहुँचा? और क्या दुनियाँ में 1920 से पहले तक कोई मुसलमान ही नहीं था? क्या तुर्की में भी नहीं थे? अरब में भी नहीं थे? मिस्र में भी नहीं थे?

तुर्की में आज भी अज़ान से पहले, अस्सलातो वस्सलामो अलौका या रसूलल्लाह कसरत से पढ़ा जाता है, ईद मिलाद मनाई जाती है, शब ए बराअत सेलिब्रेट किया जाता है, दुनियाँ के लगभग तमाम हिस्सों में चाहे वो फिलिस्तीन हो अफ्रीका हो मिस्र हो या चीन हो। जहां मुसलमान रहते हैं, ये होता है और सदियों से होता चला आया है। ऐसा करने वाले लोग हमेशा से ग़लत और 1920 के बाद जिस इस्लाम को लेकर ये लोग आएं है, ये सही, भला ऐसा कैसे हो सकते हैं।

आज ये लोग, अरब की नकल करते हैं, वहां ऐसा होता है? फिर 1920 से पहले यही लोग इतिहास की किताबों से अरब को देख लें, वहां क्या होता चला आ रहा था और आज क्या हो रहा है। मिसाल के तौर पर, जन्नत अल बक़ी में सहबियों के दौर से क़ब्रों के निशानात थे, आज मिटा दिया गया है। क्यों उस्मानिया सल्तनत तक के जो ओलेमा थे वो कुफ्र किया करते थे या क़ब्रों पर जाकर शिर्क किया करते थे?

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