जब राम मंदिर का उदघाटन हुआ था— तब जो माहौल बना था, सोशल मीडिया

जब राम मंदिर का उदघाटन हुआ था— तब जो माहौल बना था, सोशल मीडिया पर, मेनस्ट्रीम मीडिया पर, आसपास की दुनिया में… आहहहह! अदभुत, टीवी भक्तिमय आस्था चैनल हो चुके थे, सोशल मीडिया पर विरोधी पाले में खड़े सेकुलर भी और कुछ नहीं तो मूर्ति के बहाने ही लहालोट हुए ले रहे थे, हर तरफ़ रामनामी भगवा झंडे छतों पर सजे हुए थे— एकदम रामराज्य वाली फीलिंग आ रही थी। उस टाईम बतौर विपक्षी जो पर्सेप्शन बना कि बस, अब शहंशाह को कुछ और करने की ज़रूरत नहीं— इतना ही काफी है तीसरे कार्यकाल के लिये।

साउथ के चार राज्यों को छोड़ बाकी देश की 90% सीटें तो राजा जी के खाते में जाते दिख ही रही थीं— उस तूफ़ान में दस पर्सेंट सीटें बस खास बड़े विपक्षी नेताओं की ही बचनी थी। उस माहौल को देखते, उस कैलकुलेशन के हिसाब से साहब और साहब के नौनिहालों को कहने की जरूरत ही नहीं थी कि अबकी पार— चार सौ पार। हमने ही मान लिया था कि चार सौ पार ही होनी हैं— फिर चाहे संविधान की लंका लगायें या लोकतंत्र की, सब उनके हवाले।

फिर थोड़ा समय गुज़रा— चुनावी घोषणा हुई। नेताओं ने अपनी चोंच खोलनी शुरू की, लेकिन जनता का उत्साह गायब था। पहला चरण घोर उदासीनता में बीत गया, कि देख कर ताज्जुब होता था कि यह लोकसभा चुनाव चल रहे हैं। दूसरे चरण में जैसे उदासीनता की झील में कुछ फेंके गये पत्थरों से हलचल मचती लगी। इस उदासीनता का एक कारण मुझे यही समझ में आया कि जिस हिसाब से नये भारत में वोट लूट की परंपरा शुरू हुई है, आम आदमी के लिये वोट का मतलब कुछ बचा नहीं है, और यह लोगों ने समझ लिया है, तभी उसकी दिलचस्पी भी ख़त्म हुई है।

इस वोट लूट के कारणों के रूप में एक तो हम ईवीएम के प्रति अविश्वसनीयता को रख सकते हैं कि डालो किसी को, जायेगा उन्हीं को। इसमें कोई धांधली है या नहीं, यह तो नहीं पता लेकिन सरकार के पक्ष में खड़े लोगों को छोड़ बाकियों का विश्वास तो डिगा ही है। दूसरा कारण गोवा, मणिपुर, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि के उदाहरण हैं— जहां या तो स्पष्ट जनादेश के अभाव में सामने वालों को तोड़ कर सरकार बनाई गईं, या फिर चुनी और बनी सरकारों को गिरा कर अपनी सरकार बनाई गई। हालिया उदाहरण हिमाचल का है, जहां सरकार वेंटिलेटर पर पड़ी है। ऐसे में किसी के वोट का कोई मतलब बचता है? आदमी उदासीन न हो तो किस बात की उम्मीद करे?

बहरहाल, अब तीसरे चरण का समय है और पुराना उत्सवप्रेमी भारत अब अपनी उदासीनता को पीछे छोड़ चुनावी मूड में लौट आया लगता है— शायद ‘चलो एक बार और देख लेते हैं’ की उम्मीद में… इस विमर्श में सत्ता पक्ष के समर्थक शामिल नहीं हैं। बहरहाल तो कहना यह था कि राममंदिर उदघाटन के समय जो जादू जगा था और जो स्पष्ट रूप से चार सौ पार का संदेश दे रहा था— समय बीतने के साथ पता नहीं कौन सी हवा चली कि पीछे छूट चुका है। नहीं पता कि ज़मीन पर ऐसा क्या हुआ कि लड़ाई से एकदम बाहर दिख रहे विपक्ष में प्राण प्रतिष्ठा हो गई और अब एकदम से ज्यादातर सीटों पर लड़ाई दिखने लगी, जो सब पहले ऐकतरफा जीती हुई दिख रही थीं।

माहौल कैसे बदला— इसका कोई एक कारण तो नहीं लगता, शायद कई कारणों ने मिल कर यह प्रभाव पैदा किया है। पहले जो आंधी दिख रही थी शहंशाह भाई की, अब वह कहीं ढीली तो कहीं हल्की तेज़ हवा बची है। इसका अहसास ख़ुद शहंशाह को भी है, तभी ज़बान इतने निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। पहले लग रहा था कि यूपी में मुलायम परिवार की दो-तीन और रायबरेली की एक सीट छोड़ बाकी सारी सीटें बड़े मार्जिन से भाजपा को जाने वाली हैं— वहीं अब ज्यादातर सीटों पर गठबंधन फाईट में नज़र आ रहा है।

अभी पांच चरण बाकी हैं— कोई दंगा, सांप्रदायिक झड़प, ध्रुवीकरण वाली कोई घटना, या आतंकवादी हमला टाईप जो आइटम अभी बचे हुए हैं चुनाव में प्रवेश करने से, वे अगर एंट्री लेते हैं तो नहीं कहा जा सकता कि आगे जनता का मूड क्या बनेगा लेकिन अभी जो सूरतेहाल है, वह कम से कम इतना संदेश तो दे रही है कि मामला वैसा एकतरफा नहीं रहा, जितना मंदिर उदघाटन के समय दिख रहा था। अंतिम नतीजा कुछ भी हो— लेकिन विपक्ष के लिये उम्मीद बची हुई है, अभी तो इतना भी कम नहीं।

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