मुहम्मद शहाबुद्दीन:- ऊरूज का सफ़र part 1 #shahabuddin #bihar #sivan

मुहम्मद शहाबुद्दीन:- ऊरूज का सफ़र 


बिहार का जिला सीवान जहां के प्रतापपुर गांव में‌ वालिद शेख मोहम्मद हसीबुल्लाह और मां मदीना बेगम के घर 10 मई 1967 को जन्म लिए मुहम्मद शहाबुद्दीन के घर से 11 किमी दूर ज़ीरादेई से ही देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद भी आते थे। सीवान का प्रतापपुर गांव ज़ीरादेई विधानसभा क्षेत्र में ही आता है।

जन्म से ही मुहम्मद शहाबुद्दीन बेहद शर्मीले और सीधे साधे थे , बेहद गरीब घर में जन्मे 3 भाईयों और 7 बहनों में सबसे छोटे 12 वर्ष के मोहम्मद शहाबुद्दीन को 1979 में उनके मामा बक्सर लेकर आ गये।

तब मोहम्मद शहाबुद्दीन के मामा मो.मुस्तकीम बक्सर अनुमंडल कोर्ट में मुंसिफ मजिस्ट्रेट हुआ करते थे। वहीं शहाबुद्दीन की प्राथमिक शिक्षा हुई‌ और "मल्टी परपज हाईस्कूल" बक्सर में उनका दाखिला करा दिया।

वर्ष 1982 तक मोहम्मद मुस्तकीम बक्सर में ही रहे और यहीं प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट के तौर पर उनकी प्रोन्नति हुई। यहां से जाने के बाद जिला जज के पद से वह सेवानिवृत्त हुए। 

मुंसिफ मजिस्ट्रेट मोहम्मद मुस्तकीम इतने ईमानदार थे कि तीन साल बक्सर में रहने के दौरान वह सरकारी बंगले में ना रह कर पुराना कोर्ट भवन के पीछे बंगला घाट पर किराए के मकान में रहते थे।

कारण थे मुहम्मद शहाबुद्दीन जो उनके साथ ही रहते थे। शहाबुद्दीन को क्रिकेट का बहुत शौक था और इसी शौक को देखते हुए उनके मामा ने उन्हें क्रिकेट किट लाकर दिया। 

मल्टी परपज हाईस्कूल में नौंवी और दसवीं की पढ़ाई करने वाले शहाबुद्दीन एक बेहतरीन बल्लेबाज थे और मल्टी परपस हाइस्कूल के ग्राउंड पर उन्होंने खूब चौके-छक्के जड़े थे।

आगे की पढ़ाई के लिए मोहम्मद शहाबुद्दीन सीवान लौटे और वहीं के डीएवी कालेज में ऐडमिशन ले लिया जहां उनके बचपन के दोस्त मनोज सिंह का साथ मिला। मनोज उसी कालेज में कॉमर्स के स्टूडेंट थे जबकि शहाबुद्दीन आर्ट सब्जेक्ट से थे।

यहां से ही मोहम्मद शहाबुद्दीन ने स्‍नातक के पश्‍चात राजनीति शास्‍त्र में एमए की डिग्री प्राप्‍त की और यहां की छात्र राजनीति में सक्रिय रहे , उनके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलते थे उनके बचपन के दोस्त मनोज सिंह।

नोट :- मनोज सिंह नाम आगे के लिए याद रखियेगा 

यही वह दौर था जब लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा देश भर में सांप्रदायिक दंगों को फैलाती गुज़र रही थी , और बिहार में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया।

पूरे उत्तर भारत में सांप्रदायिक तनाव फैल चुका था।उस समय मोहम्मद शहाबुद्दीन दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे थे , एक तो भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति और दूसरे थी हिंसक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले लिबरेशन) की ग्रामीण क्षेत्रों में गतिविधियां।

भाकपा माले (लिबरेशन) के लोगों का उस समय सिवान से लेकर भोजपुर ,बेगूसराय खगड़िया उस वक्त पटना, जहानाबाद, अरवल, गया और पुर्णिया तक नक्सली आंदोलन के कारण का आतंक था। 

"भोजपुर" को "लाल इलाका" कहा जाता था क्योंकि भाकपा-माले जाति व्यवस्था से मारे लोगों का संगठन था , जो अपना अधिकार हिंसक तरीके से लड़ कर लेना चाह रहे थे।

माले के लोग बंदूक के बल पर जब चाहते किसी की ज़मीन कब्ज़ा करके लाल झंडा गाड़ देते तो जब चाहते किसी का धन लूट लेते। किसी की ज़मीन पर लाल झंडा लगते ही किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वह अपने खेत पर खेती कर ले।

भाकपा माले (लिबरेशन) एक प्रतिबंधित हथियारबंद हिंसक संगठन था, उस दशक में माले द्वारा जातीय नरसंहार आम बात थी। पूरा सीवान भी माले की ऐसी गतिविधियों से त्रस्त था।

इसी पृष्ठभूमि में उदय होता है, एक नायक का जिसका नाम था

                            मुहम्मद शहाबुद्दीन

शहाबुद्दीन जहां भी माले पीड़ित लोगों को मदद की जरूरत होती पहुंच जाते और माले से पीड़ित लोगों की मदद करते। सीवान के लोग माले के अत्याचार की शिकायत लेकर शहाबुद्दीन के पास आते और शहाबुद्दीन बिना जाति या धर्म देखे उनकी मदद के लिए खड़े होते।

यद्यपि तरीका ज़रूर उनका अपना था।

माले के खिलाफ लड़ते हुए 1986 में शहाबुद्दीन पर मात्र 19 साल की उम्र में हुसैनगंज थाने में एक अपराधिक मुकदमा दर्ज हो गया।

उसी दरम्यान मैरवा के रहने वाले और आर्मी से रिटायर्ड डॉ. कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह जीरादेई से कांग्रेस के विधायक थे। उनकी छवि एक ईमानदार नेता की थी।

इसी मामले में पैरवी करने के लिए शहाबुद्दीन ने विधायक डॉ. कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह से संपर्क किया और इसके लिए वह खुद विधायक से मिलने गए थे। लेकिन विधायक ने सीधे और साफ शब्दों में उस वक्त यह कह दिया था कि "मैं बदमाशों और अपराधियों की पैरवी नहीं करूंगा।" 

कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह के इंकार के बाद प्रशासन चुस्त हुआ और शहाबुद्दीन इस मामले में गिरफ्तार होकर जेल चले गए। शहाबुद्दीन की यदि पैरवी हो गई होती तो शायद शहाबुद्दीन "साहेब" नहीं बन पाते।

जेल जाकर शहाबुद्दीन कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह द्वारा किया अपमान नहीं भूल पाए। और जेल से ही उनके खिलाफ निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीरादेई से‌ विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया।

विधायक की तरफ से कही गई बातों को लेकर वो गुस्से में थे। जेल के अंदर भी गुस्सा कम नहीं हुआ और जेल में विधायक कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह विरोधी तमाम लोग शहाबुद्दीन के पक्ष में लामबंद हो गये। 

1990 का विधानसभा चुनाव होना था। शहाबुद्दीन ने चुनावी मैदान में जेल से ही नामांकन दाखिल किया था। बात हर कीमत पर डॉ. कैप्टन त्रिभुवन नारायण सिंह को हराने की थी और जेल के अंदर रहते हुए निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मात्र 23 साल के शाहबुद्दीन ने एक सिटिंग विधायक को चुनाव में हरा दिया और विधायक बन गये।

यहां पर लालू प्रसाद यादव की नज़र शहाबुद्दीन पर पड़ी और मुहम्मद शहाबुद्दीन 1990 में राष्‍ट्रीय जनता दल के युवा मोर्चा में शामिल हो गए।

शहाबुद्दीन पूरे 5 साल 1990-1996 तक जीरादेई के विधायक रहे और माले के आतंक से पीड़ित लोगों की मदद करते हुए मसीहा के तौर पर उभरने लगे।

सिवान शहर के बिशुन पक्का मोड़ के रहने वाले मरहूम कमरुद्दीन खान की पांच बेटियां थीं जुबैदा खानम ,खातून खानम, कैसर खानम, हुश्ने अंबर और फिर थीं हिना शहाब जो डीएवी पीजी कॉलेज में इकलौती छात्रा थीं जो नकाब पहन कर डीएवी पीजी कालेज आतीं थीं।

मुहम्मद शहाबुद्दीन की नज़र नकाबपोश हिना पर पड़ी और फिर गुज़रते वक्त में दोनों ने 1991 में प्रेम-विवाह कर लिया। उनके विवाह में तत्कालीन मुख्यमंत्री बिहार, लालू प्रसाद यादव स्वयं शामिल हुए।

मुहम्मद शहाबुद्दीन की वैवाहिक ज़िंदगी चलने लगी और वह सीवान में माले (लिबरेशन) के विरोध के प्रतीक बन गये। सीवान की सभी बड़ी जातियां और सभी धर्म के लोग शहाबुद्दीन के पक्ष में लामबंद होती गयी।

क्रमशः

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