बाबर की बेटी की कहानी जिसने ठुकराए थे ऑटोमन सुल्तान के शाही फरमान :बीबीसी न्यूज़

बाबर की बेटी की कहानी जिसने ठुकराए थे ऑटोमन सुल्तान के शाही फरमान :बीबीसी न्यूज़

ये कहानी सन 1576 की है जब हिंदुस्तान की सरज़मीं पर मुग़लिया सल्तनत का परचम लहरा रहा था और अरब दुनिया पर ऑटोमन साम्राज्य का राज था.

हिंदुस्तान में अकबर शहंशाह थे तो ऑटोमन साम्राज्य का ताज़ सुल्तान मुराद अली के सिर पर था.

इसी दौर में मुग़लिया सल्तनत की एक राजकुमारी ने मक्का-मदीना की अभूतपूर्व यात्रा की.

मुग़लकालीन भारत में ये पहला मौका था जब कोई महिला पवित्र हज यात्रा पर गयी. हज को इस्लाम के पांच आधार स्तंभों में से एक माना जाता है.

ये मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की बेटी गुलबदन बेगम की कहानी है जिन्होंने 53 साल की उम्र में फतेहपुर सीकरी की आरामदायक दुनिया छोड़कर एक ऐसी यात्रा पर जाने का फ़ैसला किया जो अगले छह सालों तक जारी रही.

गुलबदन बेगम इस यात्रा पर अकेले ही नहीं गईं बल्कि उन्होंने अपने साथ जाने वाली शाही महिलाओं के एक छोटे से समूह का नेतृत्व भी किया.

लेकिन अपने आप में शानदार रही इस यात्रा से जुड़े ब्योरे रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं हैं.

इतिहासकार मानते हैं कि शायद इसकी एक वजह ये रही हो कि दरबार के पुरुष इतिहासकारों ने महिला यात्रियों के ‘मान-सम्मान’ के नाम पर उनकी यात्रा से जुड़े तथ्यों को ज़ाहिर नहीं किया.

शानदार यात्रा की अधूरी दास्तां

इतिहासकार और लेखक रूबी लाल ने अपनी किताब 'वेगाबॉन्ड प्रिंसेज़: द ग्रेट एडवेंचर्स ऑफ़ गुलबदन' में इस यात्रा का ज़िक्र किया है.

रूबी लाल लिखती हैं कि गुलबदन बेगम की इस यात्रा में बहादुरी के साथ-साथ करुणा और विद्रोह से जुड़ी घटनाएं भी शामिल हैं.

गुलबदन बेगम को मुगल साम्राज्य की पहली और इकलौती महिला इतिहासकार माना जाता है.

उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को अपनी किताब हुमायूं नामा में संकलित किया है. लेकिन उनकी ये किताब भी अधूरी है. इस किताब के कई पन्ने आज तक गायब हैं.

रूबी लाल ने इस किताब को लिखने के लिए शोध करते हुए ऑटोमन साम्राज्य के इतिहास से लेकर फारसी और मुगल पांडुलिपियों समेत तमाम दूसरे दस्तावेज़ों को खंगाला है.

वह कहती हैं, "गुलबदन एक ऐसे दौर में लिख रही थीं जब तत्कालीन इतिहासकारों की ओर से शाही हस्तियों की ओर से लिखी गयी रचनाओं की प्रतियां बनाना आम बात थी. लेकिन गुलबदन की किताब की एक भी पूर्ण प्रति उपलब्ध नहीं है."

"इतनी ताक़तवर महिला की अपनी तरह की इस इकलौती सी यात्रा पर चुप्पी बहुत कुछ कहती है."

सत्ता के केंद्र से दूरी

सन 1523 में काबुल में जन्म लेने वाली गुलबदन की माँ दिलदार बेगम थीं. वह बाबर की तीसरी पत्नी थीं.

गुलबदन के जन्म के वक़्त बाबर घर से दूर रहते हुए हिंदुस्तान पर चढ़ाई करने के मंसूबे बना रहे थे.

जब ये जंगें शुरू हुईं तो बाबर का घर आना कम हो गया. गुलबदन जल्द ही इसकी अभ्यस्त भी हो गयीं.

लेकिन घर के सबसे ताक़तवर शख़्स के साथ कभी-कभार मिलने का ये सिलसिला आगे भी जारी रहा.

पिता बाबर के बाद सौतेले भाई हुमायूं और भतीजे अकबर के साथ भी उनके मिलने-जुलने का सिलसिला ऐसा ही रहा.

लेकिन जब शाही ख़ानदान के पुरुष साम्राज्यों को विस्तार देने के लिए जंगें लड़ रहे थे तब गुलबदन मजबूत महिलाओं के साये में बड़ी हो रही थीं. ये महिलाएं बाबर की माँ, चाची, बहनें, बेगम और उनकी बेटियां थीं.

इन महिलाओं की दरबारी गतिविधियों में अहम भूमिका थी. वे राजाओं और राजकुमारों के विश्वासपात्रों और सलाहकारों की भूमिका निभाती थीं.

गुलबदन के बचपन में भी यात्राओं की एक ख़ास जगह थी. बाबर के आगरा तक साम्राज्य फैलाने के बाद वह छह साल की उम्र में काबुल से आगरा तक की यात्रा करने वाली पहली मुगल महिला बनीं.

इसके बाद वह एक विवाहित महिला के रूप में काबुल वापस आईं जब अफ़ग़ान राजा शेरशाह सूरी ने उनके परिवार को हिंदुस्तान से बाहर निकाल दिया.

ये यात्राएं महीनों तक जारी रहा करती थीं. गुलबदन बेगम शाही परिवार की दूसरी महिलाओं के साथ पहाड़ी रास्तों से गुज़रते हुए जोख़िम भरी यात्राएं किया करती थीं.

इन यात्राओं के दौरान वह दुश्मनों के साथ-साथ तमाम दूसरी मुश्किलों का भी सामना करती थीं.

रूबी लाल कहती हैं, "मुग़लिया महिलाएं खानाबदोश जीवनशैली की अभ्यस्त थीं. वे युद्ध लड़ रहे अपने पतियों के साथ लगातार नयी जगहों पर पलायन करने और अस्थाई शिविरों में रहने की अभ्यस्त थीं."

रूबी लाल कहती हैं कि शायद यात्रा करने की इसी आदत की वजह से उन्होंने अपने भतीजे अकबर से हज यात्रा पर जाने की इजाज़त मांगी.

जब अकबर से की बात
अकबर का सबसे बड़ा सपना मुग़लिया सल्तनत का परचम फहराना था. वह जैसे-जैसे हिन्दुस्तान में आगे बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे खुद को एक पवित्र शख़्स के रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे थे.

वो पहला ऐसा मुग़ल बादशाह बना जिसने मुग़ल महिलाओं को बिल्कुल अलग-थलग कर हरम की चारदीवारी के अंदर रखने का फ़ैसला किया.

रूबी लिखती हैं, "शाही हरम में बादशाह के अलावा किसी को भी जाने की इजाज़त नहीं थी. इस हरम में सुंदर और कुंवारी लड़कियां रहती थीं. यह एक तरह से इस बात का सबूत था कि मुग़ल बादशाह की स्थिति लगभग दैवीय है."

लेकिन ज़िंदगी में आए इस ठहराव ने गुलबदन को परेशान कर दिया.

साल 1576 के अक्टूबर महीने में उन्होंने अकबर से कहा कि वह हज करने जाना चाहती थीं क्योंकि उन्होंने इसके लिए मन्नत मांगी थी.

अकबर ने इस यात्रा के लिए दो आलीशान मुग़ल जहाजों सलीमी और इलाही को इस्तेमाल करने की इजाज़त दी.

इस महिला दल के साथ सोने – चांदी से भरे बक्से गए जिन्हें खैरात के रूप में बांटा जाना था. इसके साथ ही हज़ारों रुपये कीमत की नकदी और बारह हज़ार सम्मान की पोशाकें भी गयीं.

रूबी लाल ने अपनी किताब में लिखा है, "जब लाल पत्थर वाली मुगलिया राजधानी फतेहपुर सीकरी की गलियों से इन महिलाओं का काफ़िला गुज़र रहा था तो इन्हें देखने के लिए सड़कों पर आम महिलाओं और पुरुषों की भीड़ मौजूद थी."

लेकिन इस यात्रा की शुरुआत ही ख़तरों से हुई. मक्का जाने वाला समुद्री रास्ता पुर्तगालियों के नियंत्रण में था जो मुसलमान जहाजों को लूटने और जलाने के लिए कुख्यात थे.

ईरान से होकर जाने वाला ज़मीनी रास्ता भी इतना ही जोख़िमभरा था क्योंकि इस रूट पर चरमपंथी गुट हुआ करते थे जो यात्रियों पर हमला कर देते थे.

इसी वजह से गुलबदन और उनके साथ गई महिलाएं लगभग एक साल तक सूरत में फंसी रहीं ताकि वे अपनी यात्रा के दौरान पुर्तगालियां से बच सकें.

इसके बाद वे अगले चार दिनों तक गर्म रेगिस्तान पर ऊंट की सवारी करके मक्का पहुंचीं.

जब सुल्तान मुराद के ख़िलाफ़ विद्रोह

उनकी इस यात्रा का सबसे दिलचस्प पहलू मक्का पहुंचने के बाद आया क्योंकि उन्होंने अपने साथ गयीं महिलाओं ने अगले चार सालों तक अरब दुनिया में रहने का फ़ैसला किया.

रूबी लाल लिखती हैं, "जिस तरह वे हरम छोड़ने पर एकमत थीं. उसी तरह वे रेगिस्तानी दुनिया में खानाबदोश जीवन जीते हुए आध्यात्मिकता की तलाश करने पर एकमत थीं."

गुलबदन और उनकी साथी महिलाओं ने जब दान देना शुरू किया तो उनकी हर जगह चर्चा होने लगी.

मुग़लिया सल्तनत की राजकुमारी गुलबदन बेगम की ओर से किए जा रहे दयालुता से भरे इन कार्यों ने ऑटोमन सुल्तान मुराद को नाराज़ कर दिया. क्योंकि उसने इसे अकबर की बढ़ती राजनीतिक शक्ति के रूप में देखा.

ऐसे में सुल्तान ने अपने लोगों को चार शाही फरमान भेजकर गुलबदन और उनके साथ गयीं मुग़लिया महिलाओं को अरब दुनिया से बेदखल करने को कहा.

लेकिन गुलबदन ने हर बार ये फरमान मानने से इनकार कर दिया.

रूबी लाल लिखती हैं, "एक मुग़ल महिला की ओर से विद्रोह की ये अभूतपूर्व घटना थी. यह बताती है कि वह अपनी आज़ादी को लेकर कितनी समर्पित थीं."

इसके बाद सुल्तान ने उनकी ज़िद से आजिज आकर इन महिलाओं के ख़िलाफ़ तुर्की भाषा में एक ऐसे शब्द का इस्तेमाल किया जिससे अकबर नाराज़ हो गया.

इस पांचवें फरमान के बाद 1580 में गुलबदन और उनकी साथी महिलाएं अरब से निकलकर दो साल लंबी यात्रा के बाद 1582 में फतेहपुर सीकरी पहुंचीं.

उनकी वापसी के बाद भी उन्हें एक नवाब के रूप में देखा गया. यही नहीं, अकबर ने उन्हें अकबरनामा में योगदान देने को भी कहा.

अकबरनामा में गुलबदन बेगम की इस यात्रा का विस्तार से ज़िक्र है. लेकिन अरब दुनिया में उनके बिताए वक़्त और सुल्तान मुराद की ओर से बाहर निकालने से जुड़ी घटनाओं का ज़िक्र नहीं है. यही नहीं, ये ज़िक्र कहीं और भी उपलब्ध नहीं है.

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