आज एक महान पुरुष, वीर-योद्धा, उत्तम शासक हज़रत अली का जन्मदिन है। उनकी न्याय-प्रियता का एक वाक़या सुनते हैं। एक बार हज़रत अली

आज एक महान पुरुष, वीर-योद्धा, उत्तम शासक हज़रत अली का जन्मदिन है। उनकी न्याय-प्रियता का एक वाक़या सुनते हैं। 
एक बार हज़रत अली एक सफ़र पर जा रहे थे। रास्ते में एक जगह थोड़ा आराम करने के लिए, कुछ ज़रूरतें पूरी करने के लिए उतरे। उनके साथ उस सफ़र में सिर्फ दो लोग थे, एक उनके आली-मुकाम साहबज़ादे हसन और उनका एक ख़ादिम। अपने जिस्म को किसी अप्रत्याशित हमले से बचाने के लिए उस समय लोगों को सफ़र में निकलते समय भी लोहे का लिबास, ज़िरह, पहनना पड़ता था। हज़रत अली जब आराम करने के लिए लेटे तो उस ज़िरह को उतार कर रख दिया। और इधर ये दोनों नौजवान इधर-उधर टहलने लगे। इन दोनों की नज़र पड़ी, ज़रा देर से नज़र पड़ी, कि एक शख़्स आया और उसने हज़रत अली के उस कीमती लिबास को उठाया और उसे लेकर वो तेज़ी के साथ भागा, किसी तेज़ रफ्तार घोड़े पर। इन दोनों ने उसे चाहा कि पकड़ें लेकिन नहीं पकड़ सके, लेकिन उसे पहचान लिया। जाना पहचाना इंसान था-यहूदियों का एक विद्वान था वो, और उसने ऐसी हरकत की तो ये दोनों हैरान रह गए। हज़रत अली जागे तो इन दोनों ने बताया कि आपकी ज़िरह हमारी आँखों के सामने फलां आदमी चुरा कर ले गया। 
 एक अपराध हुआ, और ये अपराध किसके समान के साथ हुआ? पूरी दुनिया के सबसे शक्तिशाली शासक के साथ हुआ। हज़रत अली उस समय अमीरुल-मोमिनीन थे, चौथे खलीफ़ा-ए-राशिद थे, और दुनिया की दो सुपर-पावर पर हज़रत अली का सिक्का चल रहा था। वो चाहते तो चंद मिनट के अंदर उसे गिरफ्तार करवा सकते थे। लेकिन उन्होंने कहा की कानून को अपने हाथ में लेने की इजाज़त इस्लाम मुझे भी नहीं देता। कानून को अपने नियमों के साथ काम करना चाहिए। चुनांचे उन्होंने एक अदालत के अंदर शिकायत की। उस अदालत का जज काज़ी शुरैह था जो हज़रत अली और हज़रत उस्मान दोनों का शिष्य रह चुका था। काज़ी शुरैह ने न्याय के जो सिद्धांत दिये उन पर अमेरिका और यूरोप में शोध हुये, उनके कानून के विभागों में काज़ी शुरैह के नाम पर चेयर बनाई गईं। आज भी ये माना जाता है कि “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत” के सबसे बड़े माहिर जस्टिस शुरैह थे। उन शुरैह के अदालत में हज़रत अली ने अपना मुकदमा दायर किया। 
 जस्टिस शुरैह ने दोनों पक्षों को बुलाया। जो शिकायत करने वाले थे, हज़रत अली उन्हें भी बुलाया और जिसके खिलाफ नामज़द रिपोर्ट लिखाई गई थी, जुएमर उसको भी बुलाया। मुकदमे की कार्यवाही शुरू हुयी। इस्लाम का सिद्धांत ये है, और पूरी दुनिया की न्यायिक व्यवस्था ने इस्लाम के इस सिद्धांत को स्वीकार किया है कि जो शिकायत करता है उसके ज़िम्मे होता है कि वो सबूत पेश करे। चुनांचे जस्टिस शुरैह ने हज़रत अली को यह आदेश दिया-
 -अली, आपकी यह शिकायत पर आपको बुलाया गया है। आपने नामज़द शिकायत पेश की है कि इस शख़्स ने आपकी ज़िरह चुराई है। आप सबूत पेश करें, जो गवाही आपके पास हो पेश करें। 
 हज़रत अली ने इशारा किया आपने साहबज़ादे हज़रत हसन की तरफ़। हज़रत हसन खड़े हुये और गवाही देने वाली जगह पर पहुँचे। उन्होंने कायदे के मुताबिक अपना परिचय दिया-मैं हसन इब्ने अली हूँ। और मैं इस सफर में आपने बाप हज़रत अली के साथ था और मैंने अपनी आँखों से देखा फलां जगह पर ये वाक़या पेश आया, जब हज़रत अली आराम के लिए लेटे हुये थे। ये शख़्स आया और उसने इस तरह ये ज़िरह उठाई और उसे लेकर भागा। मैंने और मेरे साथ एक आदमी और था, हमने कोशिश तो कि मगर हम कामयाब नहीं हुये मगर हमने उसे पहचान लिया। हम गवाही देते हैं कि इसी शख़्स ने मेरे बाप कि ज़िरह चुराई है। 
जस्टिस शुरैह ने गवाही सुन ली। लेकिन उसके बाद कहा-इस्लामी कानून के मुताबिक बेटे की गवाही बाप के हक़ में कुबूल नहीं की जाती। लिहाज़ा हसन, तुम्हारी गवाही नामंज़ूर की जाती है। 
हज़रत हसन चुपचाप बैठ गए।
हज़रत अली के पास जो दूसरा गवाह था, उनका ख़ादिम, उसको इशारा किया, वो खड़ा हुआ। और उसने भी उसी जगह जाकर उसी तरीक़े के मुताबिक अपना परिचाय कराया। उसके बाद गवाही दी। जस्टिस शुरैह ने पूरी गवाही सुन ली और सुनने के बाद कहा-इस्लामी क़ानून के मुताबिक गुलाम की गवाही अपने मालिक के हक़ में कुबूल नहीं की जाती। तुम्हारी गवाही भी नामंज़ूर की जाती है। और अली, अगर आपके पास और कोई गवाह हो तो लाइए। 
हज़रत अली खड़े हुये और कहा – काज़ी साहब, मेरे पास इन दो गवाहों कि अलावा कोई गवाह नहीं है। उस सफर में मेरे साथ सिर्फ ये दो थे, मैं कोई तीसरा गवाह पेश नहीं कर सकता। 
मुद्दई की बात सुन ली गई और अब जो दूसरा पक्ष था, उसकी बारी आई। जस्टिस शुरैह ने उसको मौका दिया और कहा – जुएमर, तुम अपनी सफ़ाई में जो कुछ कहना चाहते हो कहो। 
 उसने कहा कि ये इल्ज़ाम बिलकुल झूठा और गलत है, मैंने इनकी कोई ज़िरह नहीं चुराई। और ये बिलकुल झूठी शिकायत है जो आपकी अदालत में दर्ज़ की गई है। 
 अली ने कहा कि क्या कानून के मुताबिक तुम शपथ लेकर, कसम खाकर ये बात कह सकते हो? उसने कहा, हाँ-हाँ। जो भी कसम मैं खा सकता हूँ, मैं खाता हूँ और ये कहता हूँ कि ये ज़िरह मेरी है और ये इल्ज़ाम झूठा है। 
 क़ानून का काम पूरा हो गया। मुद्दई अली अपना दावा साबित नहीं कर सके। और उधर उस शख़्स ने कसम खाकर ये कह दिया कि ये ज़िरह मेरी है और ये इल्ज़ाम झूठा है। 
 जस्टिस शुरैह ने फैसला सुनाया – अली, आपकी दरख्वास्त ख़ारिज़ की जाती है। और जुएमर ये ज़िरह तुम्हारी है, तुम इसे ले जाओ। मुकदमा ख़त्म हुआ। अदालत बर्खास्त कि जाती है। 
 जुएमर बाहर निकला। जस्टिस शुरैह नीचे उतरे। अभी तक तो वो जज थे, लेकिन जैसे ही वो मुक़दमा ख़त्म हुआ तो नीचे उतरे और कहा – अमीरुल मोमिनीन, आप ही ने सिखाया है, जिस क़ानून के तहत हज़रत मोहम्मद ने फैसला करना सिखाया था, मैंने उसी के तहत फैसला किया है, मुझे उम्मीद है कि आप संतुष्ट होंगे। 
 अली ने कहा-फैसला तुमने सही किया, मगर आज तुमने एक बहुत बड़ी ज्यादती की है। और अगर आइन्दा मुझे इस ज्यादती की ख़बर मिली तो तुमको मुझे इस ओहदे इस बर्खास्त करने में देर नहीं लगेगी। 
 शुरैह ने कहा, अमीरूल-मोमिनीन, फ़ौरन बताइये कि मुझसे क्या गलती हुयी है।
 अली ने कहा- जब अदालत में तुमने मुझको गवाही देने के लिए पुकारा था, उस वक़्त तुमने मेरा नाम लेकर नहीं पुकारा। तुमने मेरी कुन्नियत के साथ मुझे पुकारा। तुमने कहा था – कुम या बिन हसन। तुम जानते हो कि हम अरब के लोग जब किसी को सम्मान के साथ बुलाना चाहते हैं, तो नाम के बजाय कुन्नियत के साथ बुलाते हैं। तुमने मुझे कुन्नियत के साथ बुलाया, जबकि उसको नाम के साथ बुलाया, इसका मतलब है कि तुमने हम दोनों के दरम्यान फ़र्क किया। ये नाइंसाफी थी। अगर आइन्दा तुमने कभी किसी के साथ नाइंसाफ़ी की तो समझा जाएगा कि तुम इस कुर्सी पर बैठने के लायक नहीं हो। 
जस्टिस शुरैह ने कहा-अमीरुल-मोमिनीन, मैं ही जानता था कि जब आप खड़े थे और मैं बैठा था तो मुझ पर क्या गुज़र रही थी। मैं आपको कदमों की ख़ाक के बराबर नहीं हूँ। लेकिन जब तक अदालत चलती रही, मैं अपना फर्ज़ अदा करता रहा। लेकिन उस वक़्त मैं अपनी ज़बान पर काबू नहीं कर सका। मेरे रोएँ-रोएँ में जो आपकी मुहब्बत है, मैं कैसे उसको काबू में करता, फ़िर भी वादा करता हूँ, आइन्दा ख्याल रखूँगा। 
 इस पूरी गुफ्तगू में थोड़ी देर लग गयी। उसके बाद हज़रत अली बाहर निकले। बाहर निकले तो देखा अदालत के बाहर जुएमर खड़ा इंतज़ार कर रहा है। हज़रत अली ने कहा – क्यूँ, अब क्या बात है। अदालत का फैसला हो गया, ये ज़िरह तुम्हारी हो गयी। जाओ, बे-खौफ़-ओ-खतर जाओ। तुम्हें कोई भी अब नहीं छेड़ेगा। मैंने स्वीकार कर लिया अदालत का यह फैसला और ये ज़िरह अब तुम्हारी है। जाओ। 
 जुएमर ने कहा-अली, मेरी बात तो सुनो। ज़िरह मेरी नहीं है, ज़िरह आपकी है और सिर्फ़ ज़िरह की बात नहीं ये जुएमर भी आपका है। 
 -क्या कह रहे तो जुएमर? तुम्हें किसी ने डराया है? 
 -अली, मैं चोर नहीं हूँ, अली तुम शायद जानते हो, मैं अपनी कौम का मजहबी रहनुमा और विद्वान हूँ। हमारी धार्मिक किताबों में ये लिखा हुआ है कि अंतिम नबी के जरिये जो दुनिया में इंसाफ कायम होगा, उसकी एक ऐसी मिसाल होगी कि उसका जो चौथा खलीफा होगा उसकी दुश्मन कौम का एक शख़्स एक जुर्म करेगा और वो जुर्म वो उसके बेटों या करीबी लोगों की आँखों के सामने करेगा, लेकिन अदालत में वो गवाही कुबूल नहीं की जाएगी, लेकिन इंसाफ के क़ायदे के मुताबिक उसकी शिकायत स्वीकार करने के योग्य नहीं पाई जाएगी। अदालत उसकी दुश्मन कौम के उस आदमी के हक़ में फैसला कर देगी। अदालत चौथे खलीफ़ा के खिलाफ फैसला कर देगी, लेकिन वो खलीफ़ा उस फैसले को सर आँखों पर कबूल करेगा, सर झुका देगा, कोई नाइंसाफी नहीं करेगा। अली, मैंने ये सब जानबूझ कर किया था, मैं ये देखना चाहता था कि क्या वो अलामत आपके अंदर मौजूद है कि नहीं। मैंने पा लिया कि वो अलामत आपके अंदर मौजूद है। 
ये थे हज़रत अली।
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