मिले तो महान /साहित्य के नोबेल पुरस्कार की नीति और कूटनीति पर आज के अखबार 'अमर उजाला' में मेरी कवर स्टोरी

मिले तो महान /
साहित्य के नोबेल पुरस्कार की नीति और कूटनीति पर आज के अखबार 'अमर उजाला' में मेरी कवर स्टोरी

उस समय कई लोगों ने कहा था कि रॉयल स्वीडिश अकादमी के नोबेल कमिटी द्वारा दिया गया साहित्य का नोबेल पुरस्कार सूली प्रूधोंम को नहीं लेना चाहिए।पहली बार साहित्य के क्षेत्र में यह पुरस्कार 1901 में फ्रांसीसी लेखक सूली प्रूधोंम को मिला था। आलोचकों ने कहा था, विध्वंसक के नाम पर रचनात्मक काम के लिए पुरस्कार। आज जब यून फुस्से को यह पुरस्कार मिला है तो भी आलोचना हो रही है। स्वर जरूर बदल गए हैं। अब कहा जा रहा है कि कौन है यून फुस्से। कभी पढा नहीं। कभी देखा नहीं। कभी सुना नहीं। अनजान को साहित्य का नोबेल पुरस्कार। अब अगर यून फुस्से हमारे लिए अनजान हैं तो क्या सबके लिए अपरिचित हैं। सवाल कई हैं। 1901 से अबतक दुनिया के 120 साहित्यकारों को इस पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है। इनमें महिला लेखकों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से केवल 17 है। वर्ष 2023 के पुरस्कार के लिए नॉर्वे के प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कथाकार और नाटककार जॉन फॉसे के नाम की घोषणा हुई है। इस पुरस्कार में उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी थे जो कई बार के नामांकन के बावजूद यह पुरस्कार हासिल करने में अबतक विफल रहे हैं। घोषणा के अनुसार फॉसे को यह पुरस्कार अपने इनोवेटिव लेखन द्वारा अनकही को आवाज देने के लिए दिया गया है। उन्होंने उन लोगों की बातें कही हैं जो खुद अपनी बात कहने में सक्षम नहीं थे। अपने उपन्यासों में उन्होंने एक सर्वथा अलग शैली विकसित की है जिसे 'फॉसे मिनिम्लिज्म' कहा जाता है। उनकी कृतियों में वे मानवीय भावनाएं भी अंतर्निहित हैं जिन्हें समाज में वर्जित या टैबू माना गया है। 64-वर्षीय फॉसे ने अपने लेखन की शुरुआत 1983 में आत्महत्या की मानसिकता पर आधारित उपन्यास 'रेड-ब्लैक' से की थी। अपने चार दशकों के साहित्यिक जीवन में उन्होंने दो दर्जन नाटकों के अलावा उपन्यास, कहानियां, निबंध और कविताएं भी लिखीं। 'ए न्यू नेम', 'स्टेन्गड गिटार' और 'पतझड़ का सपना' उनकी अन्य विश्वप्रसिद्ध कृतियां हैं। उनकी रचनाओं का दुनिया की चालीस से ज्यादा भाषाओं में अनुवाद और उनके नाटकों की हजार से ज्यादा प्रस्तुतियां हो चुकी हैं।

वैसे नोबेल पुरस्कारों की श्रृंखला में शांति और साहित्य के दो पुरस्कार ऐसे हैं जिनके साथ विवादों और असहमतियों का पुराना नाता रहा है। कम से कम साहित्य के क्षेत्र में यह विवाद अकारण नहीं है। अबतक दर्जनों ऐसे लेखकों को यह पुरस्कार मिल चुका है जिन्हें हर दृष्टि से मीडियोकर और विवादित माना गया है। ऐसे कुछ विवादास्पद नामों में एक नाम ऑस्ट्रियाई लेखक पीटर हैंडके का है जिन्होंने 1990 के दशक में अपने देश के तत्कालीन राष्ट्रपति के प्रभाव में बाल्कन युद्ध के दौरान बोस्नियाई नरसंहार को छिपाने की भरसक कोशिश की थी। लेखक के तौर पर भी वे सामान्य से ऊपर नहीं थे। स्वीडन में उनके सम्मान समारोह के बाहर हजारों लोगों ने उग्र प्रदर्शन किया था और कई देशों के राजदूतों ने उसका वहिष्कार। 2010 के साहित्य के नोबेल विजेता मारियो वर्गास लोसा अपनी उग्र दक्षिणपंथी राजनीति और अधिनायकवाद के समर्थन के लिए बदनाम थे। साहित्य के नोबेल कुछ उन लोगों को भी दे दिए गए जो खुद विजेताओं का चयन करने वाली नोबेल अकादमी के सदस्य थे। उनमें अल्पज्ञात स्वीडिश संयुक्त विजेता आइविंड जॉनसन और हैरी मार्टिसन शामिल हैं जिन्होंने 1974 में ग्राहम ग्रीन, शाऊल बोलो और ब्लादिमीर नाबोकोव जैसे लेखकों को पीछे छोड़कर यह पुरस्कार हासिल किया था। जब स्वीडिश अकादमी ने 2016 के नोबेल पुरस्कार के लिए अमेरिकी गीतकार और गायक बॉब डायलन को चुना तो लोग हैरत में पड़ गए। दुनिया भर में यह सवाल पूछा गया कि क्या बॉब वास्तव में साहित्यकार हैं। उनके गीत लोकप्रिय तो हैं लेकिन उनमें साहित्य नहीं। इस चयन को भीड़ का सम्मान कहा गया। डायलन खुद अपने चयन के बाद हफ्तों तक खामोश रहे और स्टॉकहोम में अपने पुरस्कार समारोह को नजरअंदाज कर दिया। विवादित पुरस्कारों की यह सूची बहुत लंबी है जिनमें से किसी का तर्कसंगत बचाव नोबेल कमिटी नहीं कर सकी।

अपने 122 साल के इतिहास के बाद भी साहित्य के नोबेल पुरस्कारों को अपेक्षित गरिमा नहीं मिल सकी है। अपने वैचारिक पूर्वग्रह और कुछ दूसरे कारणों से भी उसने विश्व साहित्य को दिशा देनेवाले बहुत सारे साहित्यकारों को इस वैश्विक पुरस्कार से वंचित रखा है। ऐसे वंचित साहित्यकारों को सूची में शामिल नाम देखकर हैरानी होती है। लियो टॉलस्टॉय, एंटन चेखव, जेम्स जॉयस, काफ़्का, हेनरिक इब्सन, लुइस बार्गेस, कोनराड ग्रीन, ब्लादिमीर नाबोकोव, जॉर्ज ओरवेल, थॉमस हार्डी, हेनरी जेम्स, एजरा पाउंड, स्कॉट फिट्ज़राल्ड, मार्शल प्रोस्ट, अगस्त स्ट्रिंडबर्ग नोबेल पुरस्कार से वंचित ऐसे साहित्यकार हैं जिनका विश्व साहित्य में अप्रतिम योगदान रहा है। माना जाता है कि तत्कालीन सोवियत संघ से शत्रुतापूर्ण संबंधों के कारण स्वीडन ने महान रूसी लेखकों और अपनी दक्षिणपंथी सोच के कारण किसी भी दूसरे देश के प्रगतिशील और संघर्षशील लेखक के नाम पर विचार नहीं किया। 1970 का नोबेल पुरस्कार सोवियत विद्रोही लेखक अलेक्जांडर सोल्डजेनितसिन को दिया तो गया मगर ऐसी अपमानजनक शर्तों के साथ कि लेखक ने यह कहकर पुरस्कार लेने से मना कर दिया कि वे शर्तें स्वयं नोबेल पुरस्कार का अपमान है। नोबेल साहित्य पुरस्कार के इतिहास के ये कुछ ऐसे धब्बे हैं जिनसे वह शायद ही कभी उबर पाएगा।

साहित्य के नोबेल पुरस्कार के तमाम पूर्वग्रहों के बीज स्वयं इस पुरस्कार की स्थापना के उद्देश्य में छिपा हुआ है। इन पुरस्कारों के जनक अल्फ्रेड नोबेल ने अपनी वसीयत में कहा था कि स्वीडिश बैंक में जमा उनके भारी रकम से प्राप्त ब्याज का उपयोग उन लोगों के लिए पुरस्कारों की एक श्रृंखला बनाने में किया जाएगा जिन्होंने भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, शांति और साहित्य में मानव जाति के कल्याण की परिकल्पना की है। साहित्यिक पुरस्कार के लिए उन्होंने एक शर्त जोड़ दी थी - आइडलिस्क होना। इस स्वीडिश शब्द का अर्थ है आदर्श या आदर्शवादी। आदर्शवाद को एक सामंती और बहुत हद तक पूंजीवादी अवधारणा माना जाता है। इसका अर्थ ही है जमीनी यथार्थ और मनुष्यता की बेहतरी के लिए चल रहे संघर्षों की अवहेलना। आदर्शवाद पर अत्यधिक जोर दिए जाने और मानवीय प्रयासों की उपेक्षा के कारण यह पुरस्कार हमेशा विवादों में घिरा रहा। इस पुरस्कार के दायरे में वे लोग नहीं आ सके जिन्होंने यथार्थवादी, क्रांतिकारी अथवा अपने समय के आगे का साहित्य रचा। इसके अलावा नोबेल पुरस्कारों की श्रृंखला में साहित्य और शांति के दो पुरस्कार ऐसे हैं जिन्हें कथित चयन समिति से ज्यादा स्वीडन की आंतरिक राजनीति तय करती है। इनके जरिए स्वीडन की कोशिश पश्चिमी देशों की खुश करने की होती है। साहित्य में पश्चिम विरोधी विचार रखने वाले पिछड़े, शोषित और वंचित देशों और समुदायों की अभिव्यक्ति को सायास नजरंदाज किया जाता है।

नोबेल पुरस्कारों पर क्षेत्रीयता के आरोप भी लगते हैं। इसके चयन समिति के लोग अक्सर यह कहते पाए गए हैं कि दुनिया का श्रेष्ठ साहित्य पश्चिमी देशों में ही लिखा जाता रहा है। इस पूर्वग्रह के कारण लगभग सौ साल तक इसके विजेता आमतौर पर यूरोपीय और खास तौर पर स्वीडिश लेखक ही रहे। अबतक दिए गए 120 पुरस्कारों में 95 अर्थात 80 प्रतिशत से अधिक बार यह यूरोपीय और अमेरिकी लेखकों के हिस्से में आया है। अगर पिछड़े देशों से आकर इन देशों में बस जानेवाले लेखकों को भी जोड़ दिया जाय तो यह संख्या और बड़ी हो जाएगी। अबतक अंग्रेजी भाषा के 29, फ्रेंच के 16, जर्मन के 14, स्पैनिश के 11 और स्वीडिश भाषा के 7 साहित्यकार यह पुरस्कार जीत चुके हैं। एशियाई देशों में चीनी और जापानी भाषा के मात्र दो-दो और अरबी एवं बांग्ला भाषा के एक-एक साहित्यकार को इस पुरस्कार के लायक समझा गया। अफ्रीकी देशों में 1986 में नाइजीरिया के लेखक वोल सोईंका और 2021 में इथियोपिया के लेखक अब्दुलरज़ाक गुरनाह को यह सम्मान मिला लेकिन वह भी शायद इसलिए कि वे यूरोपीय देशों में जाकर बस गए थे।

हमारे भारत में वर्ष 1913 में रवींद्रनाथ टैगोर के बाद किसी भी साहित्यकार को इस पुरस्कार के लायक नहीं समझा गया। सच यह है कि देश के किसानों और मध्यवर्ग की व्यथाओं को अभिव्यक्ति देने वाले मुंशी प्रेमचंद इस पुरस्कार के सर्वथा योग्य थे। दुनिया भर में प्रशंसित अपने देश के एक और महान लेखक आर के नारायण कई बार के नॉमिनेशन के बाद भी पुरस्कार के योग्य नहीं पाए गए। विभूति भूषण बंधोपाध्याय, इस्मत चुगताई, सुंदर रामास्वामी, आशापूर्णा देवी और अमृता प्रीतम भारत के कुछ अन्य साहित्यकार थे जो पुरस्कार के लिए नामांकित होने के बाद भी इससे वंचित रहे। वजह साफ है कि चयन समिति यूरोपीय श्रेष्ठता का चश्मा उतार नहीं पा रही है जबकि सच यह है कि संघर्षों से घिरे एशियाई और अफ्रीकी देशों में ज्यादा यथार्थवादी, जीवंत और जनपक्षधर साहित्य रचा जा रहा है।

नोबेल पुरस्कार देने वाले रॉयल स्वीडिश अकादमी में आंतरिक और वैचारिक सुधार की मांग एक अरसे से उठती रही है। चौतरफा दबाव के चलते हाल के कुछ वर्षों में संस्था द्वारा आइडलिस्क शब्द की थोड़ी उदार व्याख्या की कोशिश की गई है। कथित रूप से अब यह पुरस्कार आदर्श और आदर्शवादिता के अलावा साहित्यिक योग्यता और दुनिया में मानव अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए दिया जाने लगा है। दिक्कत यह है कि लेखकों की साहित्यिक योग्यता का मूल्यांकन करने वाले खुद अकादमी के लोगों की ही योग्यता संदिग्ध रही है और मानवाधिकारों की नोबेल कमिटी की व्याख्या वास्तविक कम, राजनीतिक ज्यादा होती है जिससे हमेशा सहमत होना कठिन है। ऐसा लगता नहीं कि नोबेल पुरस्कारों पर पश्चिमी देशों और दक्षिणपंथी विचारधारा का वर्चस्व कभी खत्म होने वाला है। वैसे तमाम विवादों, आरोपों और अंतर्विरोधों के बावजूद साहित्य का नोबेल एकमात्र वैश्विक पुरस्कार बना हुआ है तो इसकी वजह उसका कोई भरोसेमंद विकल्प खड़ा नहीं होना ही है।

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