शेरशाह सूरी की गिनती उन बादशाहों में होती है जिनके साथ इतिहास ने कभी न्याय नहीं किया. शायद इसका कारण ये रहा हो कि उन्होंने सिर्फ़ पाँच वर्षों

शेरशाह सूरी की गिनती उन बादशाहों में होती है जिनके साथ इतिहास ने कभी न्याय नहीं किया. शायद इसका कारण ये रहा हो कि उन्होंने सिर्फ़ पाँच वर्षों तक भारत पर राज किया और उनकी मौत के दस वर्षों के भीतर उनके वंश का शासन भी समाप्त हो गया.

शेरशाह की जीवनी लिखने वाले कालिकारंजन क़ानूनगो लिखते हैं, "शेरशाह का शासन भले ही सिर्फ़ पाँच वर्षों का रहा हो लेकिन शासन करने की बारीकी और क्षमता, मेहनत, न्यायप्रियता, निजी चरित्र के खरेपन, हिंदुओं ओर मुसलमानों को साथ लेकर चलने की भावना, अनुशासनप्रियता और रणनीति बनाने में वो अकबर से कम नहीं थे."

शेरशाह सूरी का असली नाम फ़रीद था. उन्होंने मुग़ल सेना में काम किया था और बाबर के साथ 1528 में उनके चंदेरी के अभियान में भी गए थे. बाबर की सेना में रहते हुए ही उन्होंने हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठने के ख़्वाब देखने शुरू कर दिए थे.

अपनी किताब 'तारीख़-ऐ- शेरशाही' में अब्बास सरवानी एक किस्सा बताते हैं, "एक बार शेरशाह बाबर के साथ खाना खा रहे थे. उन्हें खाते हुए देख बाबर ने अपने ख़ासमख़ास ख़लीफ़ा से कहा, इसके तेवर देखो. मैं इसके माथे पर सुल्तान बनने की लकीरें देखता हूँ. इससे होशियार रहो और हो सके तो इसे हिरासत में ले लो."

"ख़लीफ़ा ने बादशाह को सफ़ाई दी कि शेरशाह में वो सब करने की क्षमता नहीं है, जो आप उसके बारे में सोच रहे हैं."

बाद में शेरशाह बिहार के एक छोटे सरगना जलाल ख़ाँ के दरबार में उपनेता के तौर पर काम करने लगे.

मुग़ल बादशाह हुमायूँ से जंग
बाबर की मौत के बाद उनका बेटे हुमायूँ की चाहत बंगाल जीतने की थी, लेकिन बीच में शेरशाह सूरी का इलाक़ा पड़ता था. हुमायूँ ने उनसे लड़ाई करने का मन बनाया.

मशहूर इतिहासकार फ़रहत नसरीन अपनी किताब 'इफ़ हिस्ट्री हैज़ टौट अस एनीथिंग' में लिखती हैं, "शेरशाह की महत्वाकांक्षा इसलिए बढ़ी क्योंकि बिहार और बंगाल पर उनका पूरा नियंत्रण था. अतत: वो मुग़ल बादशाह हुमायूं के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बन गए. जहाँ तक युद्ध कौशल की बात है शेरशाह हुमायूं से कहीं बेहतर थे."

वर्ष 1537 में दोनों की सेनाएं चौसा में एक दूसरे के सामने थीं. लेकिन लड़ाई से पहले हुमायूँ ने अपना एक दूत शेरशाह के पास भेजा. अब्दुल क़ादिर बदायूंनी अपनी किताब 'तख़ब-उत- त्वारीख़' में लिखते हैं, "जब हुमायूँ का दूत मोहम्मद अज़ीज़ अफ़गान ख़ेमे मे पहुंचा तो उसने देखा कि शेरशाह कड़ी धूप में अपनी आस्तीनें ऊँची किए हुए कुल्हाड़ी से एक पेड़ के तने को काट रहे हैं. ज़मीन पर बैठकर ही उन्होंने हुमायूँ का संदेश सुना."

अज़ीज़ ने ही दोनों के बीच समझौता करवाया जिसके तहत ये तय हुआ कि मुग़लिया झंडे के तहत बंगाल और बिहार शेरशाह सूरी को दे दिए जाएंगे. इसके कुछ महीनों बाद 17 मई, 1540 को कन्नौज में हुमायूँ और शेरशाह सूरी की सेनाओं के बीच फिर मुक़ाबला हुआ.

हुमायूँ की सेना शेरशाह की तुलना में काफ़ी बड़ी थी. जहाँ शेरशाह की सेना में कुल 15000 सैनिक थे, हुमायूँ की सेना में 40000 से कम सैनिक नहीं थे. लेकिन हुमायूँ के सैनिकों ने लड़ाई शुरू होने से पहले ही उनका साथ छोड़ दिया और बिना एक भी सैनिक गंवाए शेरशाह की जीत हो गई.

हुमायूं को भारत के बाहर खदेड़ा
जब हुमायूँ वहाँ से भागने लगे तो शेरशाह ने उनका पीछा करने के लिए अपने राजपूत सिपहसालार ब्रह्मादित्य गौड़ को एक बड़े दस्ते के साथ लगाया.

अब्बास सरवानी लिखते हैं, "गौड़ को निर्देश थे कि वो हुमायूं से लड़ने के बजाय सिर्फ़ उसका पीछा करे. हुमायूँ अपने बचे-खुचे सैनिकों के साथ किसी तरह आगरा पहुंचे. आगरा पहुंचकर उन्होंने अपनी बेगम दिलदार को लिया और अपने ख़ज़ाने से कुछ धन लेकर मेवात के रास्ते लाहौर की तरफ़ रवाना हो गये."

"कुछ दिनों बाद शेरशाह भी आगरा पहुंच गए. उन्होंने अपने सिपहसालार ब्रह्मादित्य को आगरावासियों पर ज़ुल्म करने के लिए बहुत लताड़ा. फिर उन्होंने ब्रह्मादित्य और ख़्वास ख़ाँ दोनों को हुमायूँ के पीछे लगा दिया."

हुमायूँ का पीछा करने का उद्देश्य उन्हें पकड़ना नहीं बल्कि उन्हें हिंदुस्तान से खदेड़ देना था. हुमायूँ किसी तरह लाहौर पहुंचने मे सफल रहे. वहाँ वो करीब तीन महीने रहे क्योंकि उसके पीछे भेजे गए शेरशाह के सैनिक बारिश के कारण आगे नहीं बढ़ पाए.

हुमायूँ

हुमायूँ का कारवाँ दो हिस्सों में बँटा
अक्तूबर ,1540 के तीसरे हफ़्ते में शेरशाह के सैनिकों ने सुल्तानपुर नदी पार की. मिर्ज़ा मोहम्मद हैदर दुग़लत ने अपनी किताब 'तारीख़ -ऐ- राशिदी' में लिखा, "जैसे ही शेरशाह के लाहौर की तरफ़ वहाँ बढ़ने की ख़बर पहुंची, बादशाह हुमायूँ वहाँ से भाग निकले. उनके लोगों ने अपने सजे हुए घर उसी हालत में छोड़ दिए जिस हालत में वो थे."

उन्होंने अपना सारा सामान वहीं छोड़ दिया लेकिन जितना धन वो अपने साथ ले जा सकते थे, वो ले गए. वो पहले कश्मीर जाना चाहते थे लेकिन उनका कोई भी साथी वहाँ जाने के लिए तैयार नहीं था. रास्ते में ख़ुशब के पास हुमायूँ और उनके भाई कामरान के बीच झड़प हो गई और यहाँ से मुग़ल कांरवाँ दो हिस्सों में बंट गया. हुमायूँ के साथ बहुत कम सैनिक और उनकी पत्नियाँ गईं. जैसे ही हुमायूँ ने हिंदुस्तान की सीमा पार की उसका पीछा कर रहे ख़्वास ख़ाँ ने भी झेलम नदी के पश्चिमी किनारे से उनका पीछा करना छोड़ दिया.

शेरशाह ने कई सड़कें और सराय बनवाईं
शेरशाह को पूरे हिंदुस्तान में सड़कें और सराय बनवाने के लिए जाना जाता है. उन्होंने सड़कों के दोनों तरफ़ पेड़ लगवाए ताकि सड़क पर चलने वालों को पेड़ की छाया मिल सके. उन्होंने चार बड़ी सड़कें बनवाईं, जिनमें सबसे बड़ी थी ढाका के पास सोनारगाँव से सिंधु नदी तक की 1500 किलोमीटर लंबी सड़क जिसे आज जीटी रोड कहा जाता है.

इसके अलावा उन्होंने आगरा से बुरहानपुर, आगरा से जोधपुर और लाहौर से मुल्तान तक की सड़कें भी बनवाईं. न सिर्फ ये, उन्होंने हर दो कोस पर लोगों के ठहरने के लिए सराय बनवाईं. हर सराय पर दो घोड़े भी रखवाए जिनका इस्तेमाल संदेश भेजने के लिए हरकारे कर सकें. शेरशाह के प्रशासन की सफलता में इन सड़कों और सरायों ने अहम भूमिका निभाई.

उनके राज में अधिकारियों का अक्सर तबादला कर दिया जाता था और उनके सैनिक भी अक्सर गतिशील रहते थे. ये सराय इन अधिकारियों और ख़ुद बादशाह के विश्राम गृह का काम करती थीं. हर सराय में बादशाह के लिए एक अलग कमरा आरक्षित रखा जाता था.

शेरशाह का शासनकाल बहुत कम होने के बावजूद स्थापत्य कला में उनके योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता. उन्होंने दिल्ली में पुराना क़िला बनवाया. उनकी मंशा इसे दिल्ली का छठा शहर बनाने की थी. वर्ष 1542 में उन्होंने पुराने क़िले के अंदर ही क़िला-ए- कुहना मस्जिद बनवाई. लेकिन सासाराम में बने उनके मक़बरे को स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना माना जाता है.

जनता का ध्यान रखने वाले बादशाह

शेख़ रिज़ोउल्लाह मुश्तक़ी अपनी किताब 'वकियत -ए- मुश्तक़ी' में लिखते हैं, "शेरशाह अपने लोगों के लिए पिता के समान थे. असामाजिक तत्वों के प्रति वो काफ़ी सख़्त थे लेकिन दबे-कुचले लोगों और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के प्रति उनके मन में बहुत दया और प्यार था. उन्होंने हर दिन भूखे लोगों के खाने के लिए 500 तोले सोने को बेचने से मिलने वाली रकम तय कर दी थी."

"उन्होंने ये नियम बना दिया था कि वो जहाँ कहीं भी रुके हों, वहाँ के हर व्यक्ति को खाना उपलब्ध कराया जाएगा. सभी को आदेश था कि शाही बावर्चीख़ाने में आने वाले हर शख्स को खाना खिला कर भेजा जाए. वहाँ हज़ारों लोगों को रोज़ खाना खिलाया जाता था."

रिज़ो उल्लाह मुश्तकी आगे लिखते हैं, "शेरशाह ने कभी भी अत्याचार करने वाले का साथ नहीं दिया, चाहे वो उनके नज़दीकी रिश्तेदार ही क्यों न हों. दो-तिहाई रात गुज़र जाने के बाद उनके नौकर उन्हें जगा देते थे. उसके बाद वो चार घंटे तक यानि फ़ज्र की नमाज़ तक देश के हालात के बारे में रिपोर्ट सुना करते थे. वो बिना वजह ख़ून बहाए जाने और क्रूरता के सख़्त ख़िलाफ़ थे."

शेरशाह का प्रशासन बहुत चुस्त था. जिस किसी भी इलाके में अपराध होते थे अधिकारियों को प्रभावित लोगों को हरजाना देने के लिए कहा जाता था. अब्बास ख़ाँ सरवानी लिखते हैं, "ग्राम प्रमुख यानि 'मुक़द्दम' का काम गाँव के हिसाब-किताब को सँभालने से कहीं अधिक था. अगर गाँव में कोई अपराध होता था तो इसके लिए उसको ज़िम्मेदार ठहराया जाता था. डकैती या यात्रियों की हत्या होने पर उसकी ज़िम्मेदारी होती थी कि वो दोषियों को पकड़े और लूटा गया सामान बरामद करे."

किसानों का ख़ास ख़याल
शेरशाह की दयालुता के और भी कई किस्से मशहूर हैं. अब्बास सरवानी लिखते हैं, "शेरशाह की गिनती हमेशा सबसे दयालु विजेताओं में की जाएगी. इस बात के विवरण मिलते हैं कि जब वो हुमायूं की हार के बाद आगरा पहुंचे तो कई मुग़ल रानियों और महिलाएं बाहर आकर उनके सामने सिर झुकाने लगीं तो उनकी आँखों में आँसू आ गए."

"उन्होंने हमेशा इस बात का भी ख़याल रखा कि उनकी सेना के पैरों तले लोगों के खेत न रौंदे जाएं. अगर किसी वजह से उनकी सेना की वजह से खेतों को नुकसान पहुंचता था तो वो अपने अमीर भेज कर किसान को तुरंत नुकसान का मुआवज़ा दिलवाते थे."

धार्मिक सौहार्द पर ज़ोर
अपने सैनिकों के साथ भी उनका व्यवहार बहुत अच्छा रहता था और उनके सैनिक उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे. मशहूर इतिहासकार एचजी कीन अपनी किताब 'मेमॉएर्स ऑफ़ द रेसेज़ ऑफ़ द नॉर्थ वेस्ट फ़्रन्टियर' में लिखते हैं, "वो पहले मुस्लिम शासक थे जिन्होंने हमेशा अपनी प्रजा का भला चाहा."

"अपने छोटे से करियर में उन्होंने लोगों के बीच धार्मिक सौहार्द स्थापित करने पर बहुत ज़ोर लगाया. शेरशाह के शासन में हिंदुओं को महत्वपूर्ण पदों पर रखा जाता था. उनके सबसे प्रिय जनरल ब्रह्मजीत गौड़ थे जिन्हें उन्होंने चौसा और बिलग्राम की लड़ाई के बाद हुमायूं का पीछा करने भेजा था. उन्होंने पहली बार ये सोचा कि सरकार को हमेशा अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय होना चाहिए. बाद की किसी भी सरकार ने जिसमें अंग्रेज़ भी शामिल हैं, ये समझने की बुद्धिमानी नहीं दिखाई."

शेरशाह की सरकार उन पर ही केंद्रित थी
शेरशाह की सरकार मूलरूप से एक व्यक्ति की सरकार थी. अब्बास सरवानी लिखते हैं, "शेरशाह अपने राज्य के सभी अंगों, ख़ासकर वित्तीय मामलों को ख़ुद देखते थे. रोज़ उनका हर मंत्री उन कामों का विवरण उन्हें देता था जो उसने किया है और जो वो करने वाला है. शेरशाह के मंत्री उनके सचिव की तरह काम करते थे. नीतिगत मामलों के सारे तार ख़ुद शेरशाह के हाथों में होते थे."

"सैनिक मामलों पर भी शेरशाह की पूरी पकड़ थी. उनके सैनिक अपने सम्राट के आदेशों का पालन करते थे न कि अपने कमांडिंग अफ़सर का. अपने हर सैनिक का वेतन वो खुद तय करते थे और हर सैनिक को उसकी क्षमता और गुण के आधार पर वेतन दिया जाता था."

कालिंजर के किले के घेराव के दौरान आग से जले शेरशाह
शेरशाह ने वर्ष 1544 में कलिंजर के किले का घेरा डाला. अधिकतर इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह कछवाड़ा से बिना आगरा वापस लौटे सीधे कालिंजर गए. 'सलातिन- ए- अफ़ग़ाना' के लेखक अहमद यादगार लिखते हैं, "शेरशाह के कालिंजर जाने का कारण बीर सिंह बुंदेला था जिसे शेरशाह ने अपने दरबार में तलब किया था लेकिन उसने भाग कर कालिंजर के राजा के यहाँ शरण ली थी और उसे उसने शेरशाह को सौंपने से इंकार कर दिया था."

कालिंजर का किला समुद्र की सतह से 1230 फ़ीट की ऊँचाई पर बना हुआ था. शेरशाह ने किले को घेर कर सुरंगें और ऊँची मीनारें बनवाना शुरू कर दीं. जब सारी तैयारी पूरी हो गई तो तय हुआ कि 22 मई, 1545 को किले पर हमला बोला जाएगा. हमले में भाग लेने के लिए शेरशाह खुद आगे आ गए.

अब्दुल क़ादिर बदायूंनी लिखते हैं, "जब दरिया ख़ाँ बम लाए तो शेरशाह उस ऊँचे प्लेटफॉर्म से नीचे उतर आए जहां से वो तीर चला रहे थे और उस स्थान पर खड़े हो गए जहां बम रखे हुए थे. उन्होंने बम के पलीते में आग लगा कर उन्हें किले के अंदर फेंकने का आदेश दिया. जब सैनिक इन बमों को किले के अंदर फेंक रहे थे एक बम किले की दीवार से टकरा कर वापस लौटा और उस स्थान पर फटा जहां बाकी बम और पटाखे रखे हुए थे. बहुत ज़बरदस्त धमाका हुआ और चारों तरफ़ आग लग गई. वहाँ मौजूद शेख़ ख़लील, शेख़ निज़ाम और दूसरे सैनिक तो आंशिक रूप से जले लेकिन शेरशाह करीब-करीब आधे जल गए."

मरने से पहले फ़तह किया किला
उसी हालत में उन्हें शिविर के बीचों-बीच ले जाया गया. वहाँ उनके दरबार के सभी विशिष्ट लोग मौजूद थे. शेरशाह ने उसी जली हुई हालत में अपने एक जनरल ईसा ख़ाँ को तलब किया और आदेश दिया कि उनके ज़िंदा रहते किले पर कब्ज़ा कर लिया जाए. ईसा ख़ाँ ने ये सुनते ही किले पर चारों ओर से हमला बोल दिया.

अब्बास सरवानी लिखते हैं, "शेरशाह के सैनिक चीटियों और टिड्डियों की तरह किले पर टूट पड़े. जब भी शेरशाह को थोड़ा बहुत होश आता वो चिल्ला कर अपने सैनिकों को किले पर कब्ज़ा करने के लिए प्रोत्साहित करते. अगर कोई उन्हें देखने आता तो वो कहते यहाँ अपना वक़्त बरबाद करने के बजाए लड़ने जाओ. उस समय मई का महीना था और वहाँ बहुत गर्म हवा चल रही थी."

शेरशाह के सैनिकों ने उनके शरीर पर चंदन का लेप और गुलाब जल का छिड़काव किया लेकिन हर घंटे गर्मी बढ़ती ही गई और शेरशाह को कोई आराम नहीं मिला.

"दोपहर की नमाज़ के समय शेरशाह की सेना किले में घुसने में कामयाब हो गई. राजा कीरत सिंह ने अपने कुछ समर्थकों के साथ एक घर में अपने आप को क़ैद कर लिया. उस घर को शेरशाह के सैनिकों ने चारों ओर से घेर लिया."

अब्बास आगे लिखते हैं, "जैसे ही शेरशाह को जीत की ख़बर सुनाई गई, उस तकलीफ़ में भी उनके चेहरे पर ख़ुशी और संतोष के भाव उभर आए. लेकिन कुछ ही क्षणों में उन्होंने अपने आख़िरी शब्द कहे, 'या ख़ुदा, मैं तेरा शुक्रगुज़ार हूँ कि तुमने मेरी इस इच्छा को पूरा किया.' यह कहते ही उनकी आँखें हमेशा के लिए मुंद गईं."

शेरशाह की मौत के पाँचवें दिन उनके दूसरे नंबर के बेटे जलाल ख़ाँ कलिंजर पहुंचे जहाँ उन्हें हिंदुस्तान के बादशाह की गद्दी पर बैठाया गया. शेरशाह को कलिंजर के पास एक जगह लालगढ़ में दफ़ना दिया गया. बाद में उनके पार्थिव शरीर को वहाँ से निकाल कर सासाराम में शेरशाह के मक़बरे में ले जाया गया.

शेरशाह सूरी पर बीबीसी हिंदी के पत्रका Rehan Fazal साहब लिखते है….

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