ढूंढ़ो गे अगर मुल्कों-मुल्कों - मिलने को नहीं नायाब हैं हम ।

ढूंढ़ो गे अगर मुल्कों-मुल्कों - मिलने को नहीं नायाब हैं हम ।
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                मगध की अज़ीम शख़्सियत हज़रत मौलाना जमाल अहमद क़ादरी रहमतुल्लाह अलैह मुल्क के एक बड़े आलिम ए दीन और इस्लामी शिक्षा के बड़े विद्वान थे।उन्हों ने भले ही दस साल क़बल इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनके प्रभावशाली और आकर्षक ब्यक्तित्व को भुलाया नहीं जा सकता।उनकी यादें ज़ेहन को हमेशा कचोटती रहती हैं।

                पिछले दस दिनों से बार -बार उनकी पुर जमाल शख़्सियत का साया मेरी आंखों के सामने से आकर ओझल हो जाता है।यह क्या मामला है जो मेरी समझ से परे है।इस रूहानी कैफ़ियत ने मुझे मोबाईल के की-बोर्ड पर हाथ फेरते हुए उन्हें अक़ीदत का ख़िराज पेश करने पर मजबूर कर दिया है।

                    मैं सर से पैर तक गुनाहों के समुन्द्र में डूबा हुआ इंसान हूं और उन जैसे बड़े आलिम ए दीन की दुआ का मोहताज हूं।फिर भी अपने टूटे-फूटे लफ़्ज़ों से मैं ने दुआ की है कि ख़ुदाया उनकी रूह को सुकून अता करे और जन्नतुल फिरदौस में आला मुक़ाम दे।

                   मौलाना जमाल साहब हुस्नो जमाल के पैकर थे।उनकी वजीह शख़्सियत,उनका पुरकशिश अंदाज़ और उनके ओजपूर्ण वाकपटुता ने उनके ब्यक्तित्व को आकर्षक और चुम्बकीय बना दिया था और जो उनसे मिलता उनकी तरफ खिंचता चला जाता था।

                   उन्होंने नवादा में मदरसा फ़ैज़ुल बारी जैसा बड़ा संस्थान क़ायम किया और जीवनपर्यंत उसके प्रिन्सिपल रहे।वे बिहार और झारखंड की बड़ी इस्लामी संस्था 'एदारा ए शरिया ' के अध्यक्ष तथा अनेक संस्थाओं से जुड़े हुए थे।

                     उनका पैतृक घर गया जिले के डुमरांवां गांव में है जो वजीरगंज से फतेहपुर जाने वाली सड़क पर है।उनकी शादी मेरे पड़ोस में हुयी थी और वे हज़रत मौलाना बाक़र अली खां साहब के दामाद थे।मुझे बहुत मानते-चाहते थे और साले -बहनोई के रिश्ते की वजह से कभी-कभार ईशारे -ईशारों में मुझ से ख़ूबसूरत मज़ाक भी कर लिया करते थे।
               
                       बरेलवी होने के बावजूद उनपर सूफियाना रंग ग़ालिब था और महफ़िल ए समा की कई ग़ज़लें उन्हें पूरी तरह याद थीं।एक बार मेरी ख़ानक़ाह में राज्य सभा के सांसद मौलाना ओबैदुल्लाह खां आज़मी साहब का रात्रि विश्राम था।उनके साथ मौलाना जमाल साहब भी थे।खाने के बाद देर तक बात- चीत का दौर चलता रहा।मैं उन सबों की ख़िदमत पर मामूर था।इस दौरान मौलाना आज़मी ने जमाल साहब से अमीर ख़ुसरू की कोई ग़ज़ल सुनाने को कहा।हज़रत मौलाना ने बहुत ही पुरसोज़ अंदाज़ में अमीर ख़ुसरू का एक कलाम सुनाया।ऐसे सुनाया कि सबों पर हाल-क़ाल की कैफ़ियत तारी हो गयी।उस कलाम की चंद लाईन प्रस्तुत कर रहा हुं जिस में ख़ुसरू ने लालायित होते हुए क़ब्र की अंधेरी और भयावह रात में सरकार ए मदीना के दर्शन की याचना की है ;

     ज़े हाल ए मिस्कीं, मगुन तग़ाफ़ुल -दुराए नैना, बनाए बतियां ।
      सखी पिया को जो मैं न देखुं -तो कैसे काटूं अंधेरी रतिया ।।

                   उनके इंतक़ाल से लगभग दस दिनों पहले मैं घर से पटना जा रहा था।हसुआ ब्लाक के पास मेरे गांव के टानो भाई ने मेरी गाड़ी को रुकवाया और बताया कि मौलाना जमाल साहब की तबियत ख़राब है।उन्हें डाक्टर को दिखाने के लिए गया ले जा रहा था कि गाड़ी ख़राब हो गयी है।मैं ने तुरंत हज़रत को अपनी गाड़ी पर लेटाया और सीधे पटना ले जाकर डा.ए.के.ठाकुर हार्ट अस्पताल में भर्ती कराया जहां दो -तीन दिनों में ही उनकी सेहत सुधर गयी मगर एदारा ए शरिया के एक शख़्स ने उन्हें राजेन्द्र नगर के किसी डायबिटिक अस्पताल में भर्ती करा दिया जहां कुछ दिन भर्ती रहने के बाद वे फिर छोटा शेख़पुरा वापस हुए।तबियत बिगड़ने पर उन्हें डा.सगीर अहमद साहब के पास हसुआ ले जाया गया।मैं भी पहुंचा।डाक्टर साहब ने हज़रत के नब्ज़ पर हाथ रखा और "No More" कह दिया और इस तरह इल्म ओ इरफ़ान का एक रौशन चिराग़ हमेशा के लिए बेनूर हो गया।

                      प्यारे नबी ने कहा है कि एक आलिम की मौत पूरे आलम(संसार) की मौत है।एक आलिम के जाने से उस इलाक़े की आवाम इल्म की रौशनी से महरूम हो जाती है।आलिम का जाना ऐसा नुक़सान है जो पूरा नहीं हो सकता है।एक ऐसी मुसीबत है कि जिस का परिमार्जन संभव नहीं है।आलिम की मौत ज़माना के सीने पे दाग है क्योंकि एक आलिम अपने आशियाने को फूंक कर ज़माने को रौशनी बख़्श्ता है।एक ज़िंदा आलिम उज्जवल प्रकाश होता जो लोगों के जीवन पथ को हमेशा आलोकित करता रहता है।

             इल्म की शमा को रौशन जो किया करते हैं,
              ज़िंदा रहते हैं हमेशा,वह कहां मरते है हैं ।।

       इन्हीं चंद लफ़्ज़ों के साथ मैं हज़रत मौलाना जमाल अहमद क़ादरी रहमतुललाह अलैह को अक़ीदत का खिराज पेश करता हूं।गर क़बूल उफतद ज़हे इज्ज़ो शरफ। 

           ग़ुंचे को एक निगाह ए मुहब्बत से फूल कर,
           नाचीज़ का सलाम ए अक़ीदत क़बूल कर ।।

तालिब ए दुआ : मसीह उद्दीन, ख़ानक़ाह ए चिश्तिया,छोटा शेख़पुरा (नवादा)

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