फिलस्तीन-इजराइल संकट - हमास ने आखिर इजरायल के विरुद्ध व्यापक व गहरे युद्ध

(1) फिलस्तीन-इजराइल संकट - हमास ने आखिर इजरायल के विरुद्ध व्यापक व गहरे युद्ध का समय अभी क्यों चुना? दुनिया के दो धुर्वो के मध्य तीव्र होते अंतर्विरोध के समय मे इस कार्यवाही के क्या निहितार्थ है व कौनसी शक्तियां नए अंतर्विरोध पैदा करने में जी जान से जुटी हुई है। इन सवालों की पड़ताल से पहले हम वर्तमान वैश्विक घटनाक्रम के सबसे मुख्य पहलुओं की पृष्ठभूमि को जरा संक्षिप्त में समझने की कोशिश करे। रूस के साथ युक्रेन को लेकर पश्चिम व नाटो के युद्ध को दो वर्ष होने जा रहे है। 24 फरवरी 22 को रूस ने युक्रेन के पूर्व भाग के रूसी मूल के निवासियों को नरसंहार से बचाने के लिए स्पेशल ऑपरेशन शुरू किया था। वैसे लोकतांत्रिक मीडिया इस युद्ध को रूस युक्रेन युद्ध बता रहा है मगर युक्रेन के साथ व उसके पीछे मुख्य लड़ाई नाटो देश लड़ रहे है जिसकी अगुवाई अमेरिका कर रहा है। रूस ने युक्रेन के विरुद्ध जब स्पेशल ऑपरेशन शुरू किया था तब अमेरिका व नाटो ने रूस पर सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगाने शुरू किए थे व युद्ध की शुरूआत में ही रूस के आधे अमेरिकन मुद्रा को अमेरिका ने फ्रिज कर दिया था यह रकम लगभग 300 billion US dollor थी। इससे भी खराब बरताव अमेरिका ने इराक व लीबिया का किया था। अमेरिका ने 2003 के इराक युद्ध के बाद इराक की मुद्रा तक को गैर कानूनी घोषित करके वहाँ US dollor चलाया था। उसके बाद 2010-11 से शुरू हुई नीली क्रांति से खाड़ी व मध्यपूर्व के अरब देश तो ट्यूनीशिया, लीबिया, यमन, मिश्र व सीरिया की उठापटक व अमेरिका-पश्चिम की करतूतों से भीतर तक कांप गए थे। वे तब से भयभीत थे व सोच रहे थे कि पश्चिम के विरुद्ध उनसे कोई मजबूत शक्ति उनका सहारा बने व उन्हें भरोसा दे। वास्तव में तो अरब के शासक पश्चिम व विशेषकर अमेरिका से पिंड छुड़ाना चाहते थे। वे देख तथा समझ रहे थे कि रूस रक्षा शक्ति है तो चीन आर्थिक शक्ति बनकर उभरा है और ये देश नई पहलकदमी करे तो धीरे धीरे वे इनके साथ जा सके। रूस के द्वारा युक्रेन में स्पेशल ऑपरेशन शुरू होते ही दुनिया ने नई करवट ली। जब रूस का US मुद्रा भंडार फ्रिज हुआ व सख्त प्रतिबंध लगे तो खाड़ी देशों ने खुले तौर पर कहना शुरू किया कि अगर किसी युद्धक विवाद व मानव अधिकारों के नाम पर उनपर पश्चिम ने प्रतिबंध लगाये व US dollor, जिसे पेट्रो डॉलर भी कहते है, वह फ्रिज हुआ तो 6 अरब देश सीधे बर्बाद हो जाएंगे व उनका अमेरिकन reserve, निवेश व ऋण सब डूब जाएगा। इनके सामने विकल्प तब दिखा जब रूस चीन वैकल्पिक मुद्रा में अपना व्यापार करने लगे। उन्हें लगा कि ब्रिक्स का रक्षा कवच उन्हें मिल जाय तो अमेरिका के चंगुल से बाहर निकला जा सकता है। उन्हें यह भी समझ मे आने लगा कि ब्रिक्स की वैकल्पिक मुद्रा नए अवसर लेकर आ रही है। खाड़ी देशों को दिखा की दो घटनाएं एक साथ घट रही है। एक तो रूस युक्रेन में नाटो की शक्ति को चुनोती देते हुवे उनकी रक्षा शक्ति का घमंड चूर कर रहा है तो दूसरा ब्रिक्स एक आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के नेतृत्व में उभर रहा है। चीन ने इन सब हालातो को गहराई व विभिन्न आयाम से खाड़ी देशों व ईरान को समझाया तो वे अपनी दूरियों को नजदीकियों में बदलने को राजी हो गए। उधर रूस नाटो से टक्कर ले रहा था जिससे खाड़ी व अफ्रीकी लुटे पिटे क्षेत्र के देशों की जनता मिश्र, यमन, ट्यूनीशिया, लीबिया व उत्तर मध्य अफ्रीका में खुशी से झूम रही थी। यह सब हालात पश्चिम के दबदबे के अंत की शुरूआत की घण्टी बजा रहे थे। इस वर्ष अगस्त में ब्रिक्स सम्मेलन अफ्रीका में हुआ जिंसमे 6 देशों को नया सदस्य बनाने का प्रस्ताव आया जिनमे ईरान, सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात शामिल है। इन देशों को 1 जनवरी 24 से ब्रिक्स सदस्य के रूप में कार्य करना है। अगर ईरान व सऊदी ब्रिक्स में साथ काम करने लग जायेंगे व दुबई विश्व का सबसे प्रमुख व्यापारिक केंद्र बन जायेगा तब इसी के साथ अमेरिका के पेट्रो डॉलर की शक्ति का भी अंत हो जाएगा यह बात अमेरिका व CIA भली भांति समझ रहे थे। ऐसी साफ स्थिति में अमेरिका के लिए समय था कि वह जनवरी से पहले पहले ईरान-सऊदी की दोस्ती को दुश्मनी में कैसे बदले व ब्रिक्स से सऊदी को दूर कैसे रखे। उसके लिए यह महत्वपूर्ण लक्ष्य हासिल करने के साथ साथ रूस के प्रति सुन्नियों व शियाओं की हमदर्दी को खत्म करने की भी चुनोती थी। इन सबके लिए अमेरिका को किसी पुराने ऐसे ज्वलंत मुद्दे को युद्ध मे तब्दील करना था जिससे ईरान-सऊदी लड़े, ब्रिक्स बिखर जाय, रूस को मुस्लिम समर्थन में कमी आ जाय व खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका का 2001 से पहले वाला दबदबा पुनः कायम हो जाय। अमेरिका ने इस लक्ष्य के लिए कश्मीर से अधिक महत्व फिलिस्तीन विवाद को दिया। सनद रहे कि अमेरिका सुन्नी चरमपंथी संगठनो को पैदा कर उन्हें वित्त पोषण, हथियार सप्लाई व प्रशिक्षण देने से लेकर सरंक्षणदाता रहा है। उन्हें इस्लाम की पहचान व अस्मिता के नाम पर भृमित कर सदैव अपने उदेश्यों के अनुकूल मोड़ता व तोड़ता रहा है। सुन्नी चरमपंथी संगठनों से उसके गहरे प्रेम सम्बन्ध रहे है जिसका सेतु सऊदी रहा है। अधिक दूर नही बल्कि अफगान मुजाहिद्दीन, अलकायदा, तालिबान, कूर्द विधरोही व इस्लामिक स्टेट(ISIS) का इतिहास ताजा कर ले इन सबके पीछे अमेरिका ही था। अब जब अमेरिका, उसकी सैनिक व आर्थिक शक्ति के साथ साथ उसकी मुद्रा को सबसे कठिन चुनोती मिल रही हो तब वह सबकुछ करेगा जो उसकी फ़ितरत रही है। अमेरिका व ख़ासकर CIA से इन तमाम संगठनों के सम्बन्ध खत्म नही हुवे बल्कि वे सब यथा जगह कायम है। एसी स्थिति में CIA ने इन्ही संगठनों के मार्फ़त जासूसी नेटवर्क के जरिये हमास को भृमित कर इजराइल पर हमला करवाया है। इसमे सम्भव है कि मोसाद के नेतन्याहू समर्थक गुट का भी हाथ हो। उसे पता है कि जब इजरायल पुरजोर जवाबी कार्यवाही करेगा तो हमास, हिजबुल्लाह, लेबनान, सऊदी व ईरान के मध्य मतभेद इतने बढ़ जाएंगे कि इन देशों के लिए ब्रिक्स, रूस-चीन सम्बन्ध गौण हो जाएंगे व फिलिस्तीन-इजराइल विवाद व युद्ध का अमेरिका ना केवल पंच बन जायेगा बल्कि खाड़ी व अरब देशों में उसकी महत्ता पुनः बढ़ जाएगी। इस पूरी पृष्ठभूमि, वैश्विक राजनीति के नए मोड़, पश्चिम व विशेषकर अमेरिका-CIA की चालों को समझते हुवे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि फिलिस्तीन-इजराइल विवाद का सऊदी-ईरान,चीन-रूस, इजराइल-अमेरिका साथ मे बैठकर तुरंत हल निकाले। गाजा में शांति कायम हो तथा इजराइल 29 नवंबर 1947 UN general assembly के विभाजन प्लान को स्वीकार कर बाद के तमाम स्थानों को छोड़कर उनसे दूर हट जाए। भागाराम मेघवाल । Director, The School of International Studies।

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