लगभग पच्चीस साल पुरानी बात है, ठंड का मौसम था, मैं मुंगेर से जमुई आ रहा था,

लगभग पच्चीस साल पुरानी बात है, ठंड का मौसम था, मैं मुंगेर से जमुई आ रहा था, मुझे मुंगेर से मिनी बस मिली, जमुई और मुंगेर के बीच एक जगह है "हवेली खड़गपुर", । इस बीच काफी घने जंगल हैं, मिनी बस खड़गपुर से पहले ही खराब हो गई। उन दिनों उस रुट में काफी कम गाडियाँ चला करती थी। हम 2/3 किलोमीटर पैदल चलकर हवेली खड़गपुर पहुँचे। कुछ लोग बस पर ही रुक गए, कुछ लोग लोकल में अपने जानने वालों के संपर्क में चले गए। शाम काफी हो चुका था, अंधेरा छा चुका था। न कोई जान न पहचान, लाइट भी नही। दुकानें लगभग बन्द हो चुकी थी। सोंच रहा था की अब क्या करूँ?

एक आवाज आयी, शायद एक उम्र दराज व्यक्ति किसी को कह रहा था की अजना होतो, बोतला लेके मस्जिदा में चल जैयिहा (अजान होगी, बोतल लेकर मस्जिद में चले जाना)। मैं पिछे मुड़कर देखा, कुछ दूर पर एक मकान के पास एक औरत अपने हाँथ में एक बोतल पकड़कर खड़ी है, उसे एक बूढ़ा व्यक्ति कह रहा था। मैने आवाज देकर पूछा चाचा मस्जिद कहा हैं?

उन्होंने कहा, नुनु घरा कहाँ हको (बेटा घर कहाँ है)? मैंने जवाब दिया, उन्होने उस औरत को कहा की इसे साथ मे लेते जाना, हम उस औरत के साथ चंद मिनट में चलकर मस्जिद पहुँच गए, मस्जिद के दरवाजे के पास उस औरत ने मुझे कहा यह बोतल आप अंदर मौलवी साहब को दे दीजियेगा और कहियेगा की यादव जी के घर का बोतल है। उस औरत का इतना बोलना खत्म हुआ था की एक मौलवी साहब आ गए, खुद बोतल ले लिए। उन्होंने उनसे पूछा की यह कौन है? मैंने अपने बारे बताया की मुसाफिर हुँ, जमुई से हुँ। उन्होंने जमुई के कुछ लोगो का नाम पूछा जिसमे मेरे एक छोटे मामा का नाम भी उन्होंने लिया (यह सब लोग तबलीग जमायत के जिला जिम्मेदार थे)। मैंने अपने मामा का संबन्ध बताया, तो उन्होंने कहा की आप आज मेरे मेहमान होंगे। औरत वापस चली गई।  

थोड़ी देर में ईशा की अजान हुई, हम नमाज से फारिग हुए, उनके साथ रात का खाना खाया, मौलवी साहब एक आलिम थे, बहुत जहीन और जानकर थे। असरी इल्म से भी वाकिफ थे। उन्होंने कहा आप बुरा न मानेगें की हमने जमुई के लोगो का नाम पूछकर तस्दीक क्यूँ किया?
दरअसल अंजान लोगों को हम मस्जिद में नही ठहरने देते हैं, इसके कई वजह हैं। उसी कड़ी में एक बात उन्होंने बताई। जिसमे मैं कई जानकारियां बाद में मैंने भी जुटाई।   

16 वी सदी ईस्वी में यह खड़गपुर राज हुआ करता था जो उन्नीसवीं सदी में खत्म हुआ। यहाँ एक राजपूत हिंदू राजा हुआ करता था, जिसका नाम राजा संग्राम सिंह था , वह मुगल शहंशाह अकबर के समकालीन थे । राजा संग्राम सिंह ने शुरू में अकबर के प्रति निष्ठा का वचन दिया था, लेकिन 1601 के बाद से उन्होंने मुगलों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। अपने बेटे तोरल मल की मदद से स्वतंत्रता की घोषणा करने का प्रयास किया। तोरल मल 1615 में इस्लाम कबुल कर लिया। राजा तोरल मल को ही रोज अफ्ज़ुन के नाम से जाना जाता है। रोज़ अफज़ुन को एक वफादार और भरोसेमंद मुगल सेनापति माना जाता था। शहंशाह जहांगीर ने उन्हें साम्राज्य के अपने सबसे "पसंदीदा" और "स्थायी" सेनापति के रूप में संदर्भित किया था। रोज अफ्ज़ुन का बेटा राजा बहरोज़ सिंह शाजहाँ का समकालीन था और शाहजहां के पक्ष में कंधार में एक सैन्य अभियान कर विद्रोहियों को शांत किया , उन्होंने ही घटवाली प्रणाली की भी स्थापना की जिसने संवेदनशील क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था को छोटे भू-स्वामियों को सौंप दिया। 

राजा तोरल मल के इस्लाम कबुल करने के साथ साथ उसके तमाम रिश्तेदार और मानने वाले लोगो ने इस्लाम कबूल कर लिया। यहाँ पर जो भी मुसलमान हैं या तो उसकी वंशज है या उनके मानने वाले। राजा ने इस्लाम कबूल करने के बाद कुछ बदलाव के साथ अपने इस हवेली में ही मस्जिद बना डाली। इस इमारत में जगह जगह देवी देवताओं की मूर्तियों के सबूत मिलेंगे। उन्होंने कहा यह मस्जिद बहुत सेंसिटिव है। यह मस्जिद उस लिस्ट में है जिसे हिंदु संगठन मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने का दावा करती है। लेकिन यहाँ के लोग सबकुछ जानते हैं और यही कारण है की पांच छ: साल पहले हुए भागलपुर दंगे की आँच यहाँ तो पहुँची थी लेकिन इस जगह को जला नही पायी चूँकि यादव , राजपूत और सभी हिंदू जातियाँ इस सच्चाई से वाकिफ है लेकिन बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और आर एस एस वाले इस बात को जानकर भी नकारते हुए इस मस्जिद को मंदिर बनाना चाहते हैं। इस मस्जिद पर भी मंदिर बनाने की कोशिश हो रही है। पुरातत्व विभाग वाले यहां भी आये थे और उन्होंने इसके दीवारों और कई जगह जांच किया। उन्होंने एक दिवार दिखाया जिसकी खुदाई की गई थी। जिसमे एक हिन्दू देवी देवता की मूर्ति जैसा स्ट्रक्चर साफ नजर आ रहा था। हवेली खड़गपुर की दो मस्जिदों पर मंदिर तोड़ कर बनाने का दावा किया गया है । 

यह दोनों मस्जिद दरअसल राजा का भवन / हवेली / पूजास्थल था, जिसमे देवी देवताओं की मूर्तियां लगी हुई थी। राजा के मुस्लमान होने के बाद उन्होंने खुद उस स्थल (ईमारत) को मस्जिद बना दिया जिसमे मूर्तियों को तोडा नहीं गया बल्कि ढक दिया गया या उसपर दिवार दे दिया गया। उन्होंने कहा की इसमें कोई शक नहीं की इस मस्जिद में हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां नहीं मिलेगी लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं की यह राजा का महल / हवेली / पूजास्थल था और राजा ने खुद अपने इस इमारत को मस्जिद बनाया , किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बल्कि अपने इमारत को बदलकर। हिन्दू संगठनों का दवा है की खड़गपुर में वर्ष (१६५६-५७) में एक मंदिर को मस्जिद बनाया गया था , यह दौर राजा बहरोज़ सिंह का था जो खुद मुसलमान था और इन्होने ही शाही मस्जिद खड़गपुर बनवाया था। हिन्दू संगठनों का दावा है की खड़गपुर में वर्ष (१६९५-९६) में एक मंदिर को मस्जिद बनाया गया था तो यह दौर राजा बहरोज़ सिंह का बेटा राजा तहवर सिंह @कुंवर तहव्वुर असद का था जो शहंशाह औरंगज़ेब का समकालीन था। इन राजाओं ने इस्लामिक मान्यताओं पर अम्ल किया और अपने इमारत पर ही मस्जिद बना डाली। जिसे आज हिन्दू संगठन मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाने का दावा कर रही है|

Mustaqim Siddiqui

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