ससैक्स यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड
ससैक्स यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड में शाम एक कार्यक्रम का आयोजन था. यहां झारखंड के सिमडेगा जिले में जन्मी खड़िया समुदाय की एक शोधार्थी संध्या केरकेट्टा ने कार्यक्रम के आयोजन की सारी ज़िम्मेदारी ली थी.
इस दौरान भारत के भिन्न-भिन्न आदिवासी समुदाय और नॉर्थ ईस्ट के कुछ ट्राइबल इलाकों का अध्ययन कर रहे इस यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों ने अपना अध्ययन रखा. भारत से भी कुछ आदिवासी शोधार्थी अपने अध्ययन के साथ ऑनलाइन जुड़े थे. पहले प्रो. विनीता दामोदरन, प्रो. फिलिक्स पडेल, प्रो. मेनन गांगुली ने अपनी बातें रखी. इस कार्यक्रम को सुनने के लिए यूके, इटली, भारत व अन्य देशों से लोग ऑनलाइन जुड़े थे. शोधार्थियों ने अलग-अलग सवाल का जवाब दिया.
एक सवाल था. क्या अफ्रीका, नेटिव अमेरिका के देशज लोगों की तरह भारत के आदिवासियों/ ट्राइबल्स का भी अपना इतिहास है, आस्था है या वे शुरू से हिन्दू हैं?
नहीं. आदिवासी शुरू से हिन्दू नहीं हैं. उनकी अपनी भाषा, संस्कृति है. धर्म जैसे शब्द का बहुत बाद में संगठित धर्म के साथ ही वहां प्रवेश हुआ है. वहां "धर्म" जीवन शैली में अलग तरीके से है, जिसका ज़िक्र वाचिक परंपरा में मिलता है. ईसाईयत की तरह ही दूसरे धर्मों को भी कुछ आदिवासियों ने अपनाया है. संगठित धर्मों के प्रवेश से दोनों ही समाज के भीतर कुछ चीजें बदली हैं. जैसे ईसाईयत के प्रभाव से उरांव आदिवासियों के भीतर स्त्री शक्ति के लिए प्रयोग होने वाले शब्द धीरे-धीरे पुरुष शक्ति के लिए प्रयोग होने वाले शब्द में बदले हैं. इसी तरह दूसरे धर्म ने स्त्री शक्ति पर आदिवासियों के विश्वास को अपने धर्म में उठाया है. ईसाईयत के साथ इस्लाम और हिंदू धर्म में भी आदिवासी गए हैं पर वे प्रारंभ से हिंदू नहीं रहे हैं.
TISS, मुंबई से डॉ. जॉय प्रफुल्ल लकड़ा ने यह कहा.
उड़ीसा में कोंध आदिवासियों की पहचान, संघर्ष और इतिहास पर अध्ययन करने वाले शोधार्थी सौम्य रंजन ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि भारत के आदिवासियों को समझने के लिए जिस आर्काइव के सहारे उन्हें समझने की कोशिश होती है, यह खुद भी बहुत औपनिवेशिक मानसिकता से तैयार है इसलिए पूर्वाग्रहों को त्यागे बिना और नए नजरिए से सीखने के लिए तैयार हुए बिना आदिवासियों को नहीं समझा जा सकता है.
मणिपुर, नॉर्थ ईस्ट से ससैक्स यूनीवर्सिटी में शोधरत एक शोधार्थी डेविड चिनलालियन ने कहा कि नॉर्थ ईस्ट के ट्राइबल्स हमेशा अपने अलग क्षेत्र के लिए संघर्ष करते रहे हैं. वहां हर तरफ़ से लोगों का प्रवेश होने से अलग-अलग ट्राइब अपनी भाषा- संस्कृति, पहचान को बचाने के लिए संघर्षरत रहे हैं. देश के भीतर कौन पहले आया और कौन बाद में, इस सवाल को छोड़कर अलग-अलग समुदायों, उनकी अलग पहचान, विशेषता, उनकी भाषा-संस्कृति इन सब भिन्नता का सम्मान करने और एक दूसरे से सीखने से ही समस्याएं सुलझ सकती हैं.
इस लंबे सत्र के बाद कविताओं के पाठ के साथ यह दिन पूरा हुआ.
तारीख़: 21.10.2022
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