टोकना कहां तक सही है

दर्द को गुजरने दीजिए
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बहुत पुरानी याद है। मेरी साली देर से घर आई थी। मैं वहीं ससुराल में बैठा था। मां चिंतित तो थी कि बेटी सहेली के घर गई है अब तक नहीं आई, लेकिन चेहरा शांत था। तब मोबाइल फोन क्या घर-घर लैंड लाइन वाले फोन भी नहीं थे। प्रश्न था कि किससे पता करें कि वो कहां है? 
उत्तर भारत में लड़कियां घर से निकलती हैं तो घर वालों के मस्तिष्क में चिंता की गहरी लकीरें उभरने लगती हैं। बेटी कॉलेज से आई, कह कर गई कि सहेली से मिलने जा रही है जल्दी लौट आएगी। फिर आई क्यों नहीं? 
चिंतित सब थे, कह कोई कुछ नहीं रहा था। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। साली सामने थी। खुश। 
सास जैसे ही घंटी बजी, रसोई में चली गईं। चाय, नाश्ता बना। सब साथ बैठे। लेकिन मां ने एक बार भी बेटी को नहीं टोका। नहीं पूछा कि तुम्हें आने में देर क्यों हुई? मैंने ही साली को टोका कि देर क्यों हुई, सब परेशान थे तो उनसे कहा कि आते हुए ऑटो रिक्शा नहीं मिल रहा था। 
संजय सिन्हा ने टोका था, बेटी की मां ने नहीं। न टोका, न पूछा। हालांकि वो परेशान थीं लेकिन परेशानी जाहिर नहीं कर रही थीं। 
बाद में संजय सिन्हा ने एक दिन सास से पूछा कि आपने बेटी से पूछा क्यों नहीं कि देर क्यों हुई? और ऑटो नहीं मिल रहा था, ये तो दिल्ली की आम समस्या है तो आपको उससे कहना चाहिए था कि सहेली के घर से टाइम से निकलती। देर होने से ऑटो में देर हुई। रात में दिल्ली सेफ नहीं है।
मेरी सास ने एक गहरी चुप्पी के बाद कहा कि मैंने उसे नहीं टोका। उससे नहीं पूछा। वो चाहती थी कि मैं उसे टोकूं। पर क्यों? कॉलेज जाती है। बड़ी हो गई है। टोकने से क्या होगा? टोक दूंगी तो कोई न कोई बहाना सामने आ जाएगा। नहीं टोकने से उसके मन पर बोझ है कि मां सवाल नहीं कर रही। वो सफाई देना चाहती है, मैं सफाई सुनना नहीं चाहती। मैं चाहती हूं कि उसे देर का अहसास हो और भविष्य मे वो देर न करे। 
मैंने नोट किया कि सास के नहीं टोकने का गहरा असर हुआ था। उसके बाद उसने वो गलती दुबारा नहीं की।
अब सवाल ये है कि संजय सिन्हा आज सास और साली की कहानी क्यों सुना रहे हैं? 
असल में वो साली के लिए तो सबक था ही, संजय सिन्हा के लिए भी सबक था। हम बहुत-सी बातों पर टोकते हैं। टोकने से फायदा क्या? सामने वाले को दलील देने का बहाना मिल जाता है। आप टोक देंगे तो उसका अपराध कम हो जाएगा। नहीं टोकना टोकने से अधिक बड़ी सजा होती है। 
मैं नोट कर रहा हूं कि फेसबुक पर इन दिनों आप सत्ता की कमियों के बारे में जरा-सा बोलते नहीं है कि ढेरों लोग पक्ष में आ खड़े होते हैं। इससे करने वाले की गलतियां छोटी पड़ने लगती हैं। मेरी सलाह मानिए, मत टोकिए। जो गलत कर रहे हैं, उन्हें गलती करने दीजिए। टोकने का काम मीडिया का था। मीडिया में अब पत्रकार बचे नहीं। 1977 के बाद दलालों को पत्रकार बना कर जो खेती की गई थी, उसकी फुल फसल तैयार है। जो बच गए पत्रकार थे, निकल गए या निकाल दिए गए। कुछ यू ट्यूब चैनल चला रहे हैं, कुछ लॉ कर रहे हैं। कुछ फेसबुक पर लिख रहे हैं। समय काटने के लिए कुछ तो करना ही होगा। 
ये बातें चिंता की नहीं है। चिंता की बात ये है कि कुछ पत्रकार फेसबुक पर ‘उनकी’ कमियों पर रोज़ लिखते हैं। मत लिखिए। लिखने से दूसरे पक्ष को मौका मिल जाता है सफाई देने का। 
सफाई देने का मौका देना कूकर की सिटी ढीली कर देने के समान होता है। फिर ठीक से प्रेशर बन ही नहीं पाता है। 
आप कमियों को उजागर कीजिए, पर किसी की आलोचना मत कीजिए। आलोचना से सामने वाले को न सिर्फ खुद को क्लीन चिट देने का मौका मिलता है, बल्कि दूसरे पर लांछन लगाने का भी मौका मिल जाता है। 
मेरी सास का दिया ज्ञान मेरे लिए गुरू मंत्र बन गया। हालांकि आदमी आदत से जाता थोड़े न है, कभी-कभी मैं भी उस जाल में फंस ही जाता हूं। पर जैसे ही सास की याद आती है, मन कहता है, ना संजय सिन्हा ना। ये काम मत करो। उन्हें सफाई का मौका मत दो। फोड़ा पकता है तो उसे फूटना ही होता है। काहे को रोज़-रोज़ कुरेदना? 
मैंने साली के देर से आने की जिस घटना का जिक्र आपसे किया है, आप उसे किसी को बताइएगा नहीं। साली नाराज़ होगी तो उसकी दीदी भी नाराज़ होगी। इन दिनों दिल्ली में हूं तो दीदी की नाराजगी का मतलब अपना राजमा-चावल भी गोल। दोनों बहनों में खूब छनती है। हैं भी तो दोनों एक टोकरी की टमाटर। 
टमाटर वाला चुटकुला मेरे साढ़ू भाई ने मुझे सुनाया था कि दो साढ़ुओं के बीच क्या रिश्ता होता है? दोनों एक ही दुकानदार की एक ही टोकरी से अपना-अपना टमाटर लाए होते हैं, बस। 
मैंने कम में जो कहा आपने समझा न? कोई कुछ भी कहे, अपने को उकसना नहीं है। जो जो कर रहा है उसे करने दीजिए। दर्द का हद से गुजर जाना ही दवा है।
#sanjysinha
#ssfbFamily

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