सितम्बर का महीना था और 1946 का साल था। मुज़फ़्फ़रपुर के बेनीबाग़ और अंधना मे औरतों के नाम पर मुस्लिम विरोधी दंगा होता

कलेजा थाम लो, रुदाद ए ग़म हमको सुनाने दो,
तुम्हे दुखा हुआ दिल हम दिखाते हैं, दिखाने दो.

सितम्बर का महीना था और 1946 का साल था। मुज़फ़्फ़रपुर के बेनीबाग़ और अंधना मे औरतों के नाम पर मुस्लिम विरोधी दंगा होता है। मुसलमानो के 200 घर लहका दिए गए और सरकारी आंकड़े के हिसाब से 15 लोग मारे भी गए, जो मुसलमान थे। मामला शांत हो गया पर अंदर ही अंदर आग दहक रही थी; मुसलमानो के ख़िलाफ़ माहौल बन रहा था, बस ज़रुरत थी एक चिंगारी की। 

15 अगस्त, 1946 को जिन्ना के ‘‘डायरेक्ट एक्शन’’ (सीधी कार्रवाई) के फ़रमान का असर तो बिहार मे कुछ ख़ास नही दिखा पर कलकत्ता जल उठा और ये हुआ हिंदू महासभा के ‘‘निग्रह-मोर्चा’’ और "मुसलिम लीग" के रज़ाकारो टकराओ के बाद.. हज़ारो की तादाद मे लोग मारे गए जिसमे दोनो तरफ़ के लोग थे पर जबतक कलकत्ता शांत होता ‘‘जल उठा नोआखाली’’ और यहां हमवतन हिन्दुओं को एक तरफ़ा मुसलिम लीग के रज़ाकारो के हमले का शिकार होना पड़ा जिसमे सैंकड़ो हिन्दु क़तल कर दिए गए...

नोआखाली और बंगाल तो गांधी की मेहनत के वजह कर शांत हो गया लेकिन बिहार के कांग्रेसीयों और अख़बार व प्रेस वालों ने आग मे घी डालने का काम किया, युचिती किर्पलानी और आचार्या किर्पलानी जैसे ज़िममेदार कांग्रेसी लीडरों ने कुछ एैसी मुबालग़ाआराई से काम लिया के पुरे मुल्क भर के हिन्दु मुसलमानो के ख़िलाफ़ हो गए। 

बिहार के सर्च लाईट, इंडयन नेशन जैसे अंग्रेज़ी अख़बार और हिन्दी मे आर्यावर्त व प्रादीप जैसे अख़बार ने एैसा आग लगाया के पुरे बिहार के हमवतन हिन्दु के दिलो मे मुसलमानो के ख़िलाफ़ आग सी लग गई. यहां पर बता दुं सर्च लाईट और प्रादीप कांग्रेसी अख़बार थे और उसके इडि्टर मुरली मनोहर प्रासाद जैसे पुराने कांग्रेसी लीडर थे.

"नोआखाली और बंगाल का हत्याकांड देश के पुरुषत्व पर लांछन है.’’ कुछ ऐसा अख़बार का सार था. बता दुं के सर्च लाईट अख़बार को सैयद हसन ईमाम ने अपना ज़ाती पैसा ख़र्च कर निकाला था।

एक अख़बार हुं मै, औक़ात ही क्या मेरी ?
पर शहर मे आग लगाने के लिए काफ़ी हुं।

यही नहीं बात तब और बिगड़ गई जब क्रष्ण वल्लभ सहाए , मुरली मनोहर प्रासाद , जगत नारएण लाल वग़ैरा ने 25 अक्तुबर के नोआखाली डे मनाने का एलान कर दिया; चुनांचे इस दिन पटना की सड़को पर "ख़ुन के बदले ख़ुन से लेंगे" जैसे भड़काऊ नारे लगाते हुए बहुत सारे जुलुस गांधी मैदान जमा हुए और वहां क्रष्ण वल्लभ सहाए की सदारत मे आम जलसा हुआ।

इस जलसा मे शेरे दिल रहनुमा प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी भी पहुंच गए और उन्होने रेवाएती हक़गोई और बेबाकी से काम लेते हुए जमा हुई भीड़ को जम कर फटकारा और कहा :- हम कांग्रेसी तो अहिंसावादी हैं और सारे मसाएल को पुरअमन तौर पर हल करना चाहते हैं मगर जो फ़ैसला तलवार से करना चाहते हैं तो उन्हे पानीपत के मैदान मे जमा हो कर लड़ाई का फ़ैसला वहां कर लेना चाहीए. बेक़सुर शहरीयों को क़तल करने से मसाएल का हल नही निकलेगा और ना ही उन्हे बहादुर माना जाएगा।

बिहार मे फ़साद 26 अक्तुबर 1946 को छपरा शहर में शुरु हुआ जिसमे बड़ी तादाद पर मुसलमानो को ज़ख़मी किया गया और मुस्लिम लीग के एक नेता फ़ख़रुद्दीन राज़ी पर हुए हमले ने आग मे और घी डाला; पर हादसे की ख़बर सुनने के बाद डॉ सैयद महमुद वज़ीरआला श्री क्रिष्ण सिंह के साथ वहां पहुंच गए, इस लिए सुरतहाल पर जल्द क़ाबु पा लिया गया।

फिर डॉ सैयद महमुद श्री क्रिष्ण सिंह के साथ मुज़फ़्फ़रपुर के दौरे पर भी गए जिससे लोगो मे एएतेमाद पैदा हुआ और अफ़सरों के हौसले भी बुलंद हुए. ये इलाक़ा तो शांत रहा पर मगध का इलाक़ा पुरी तरह जल उठा जिसमे पुरा पटना ज़िला, गया, जहानाबाद, नालंदा, नवादा, मुंगेर बर्बादी के दहाने पर खड़ा हो गया और 28 अक्तुबर तक तो ये आग पटना से होते हवे छपरा, मोधीर, भागलपुर, संथाल परगना पहुंच गई।

सरकारी आकड़े के हिसाब से लगभग तीस हज़ार लोग अपने ही हमवतन के ज़रिया क़तल कर दिए जिनमे बेशतर मुसलमान ही थे।

यह पुकार सारे चमन मे थी, वोह सेहर हुई, वोह सेहर हुई.
मेरा आशियां से उठा धुवां तो मुझे भी इसकी ख़बर हुई.

नोआखाली के क़त्लेआम का बदला तिलहाड़ा, मुबारकपुर, घोरहवां जैसे कई गांव से मुसलमानो का नामोनिशान मिटा लिया गया और ये वोह गांव थे जहां मुसलमानो 500 साल से रहता आ रहा था।

इस फ़साद ने मुसलमानो की बस्तीयों को बिलकुल ही ख़तम कर दिया और बिहार के मुसलमानो का सक़ाफ़ती मरकज़ को बिलकुल बरबाद कर दिया जिससे वोह रौशनी और क़ुवत हासिल करते थे. यहां तक के इस फ़साद मे मगध के के उस देहाती तहज़ीब को ही हमेशा के लिए ख़तम कर दिया जिस पर यहां के हिन्दु और मुसलमान दोनो को नाज़ था।

3 नवम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरु, नवाब लयाक़त अली, सरदार अब्दुर रब नशतर सहीत कई बड़े नेता पटना बिहार पहुंच गए पर फ़साद मे कोई कमी नही आई; तब राजेंद्र बाबू ने देखा की अब हमलोग (सरदार पटेल, नेहरु और राजेंद्र प्रासाद) से कुछ नही हो पाएगा तो 5 नवम्बर को एक प्रेस कॉनफ़्रेंस कर के ये एलान किया के गांधी जी ने फ़ैसला किया है कि अगर बिहार मे फ़साद 24 घंटे मे नही रुका तो वो "मर्न बर्त" शुरु कर देंगे, आचार्या किर्पलानी इस कानफ़्रेंस मे मौजुद थे। 

इसके बाद 6 नवम्बर को गांधी जी ने बिहार को ख़िताब करते हुए एक बयान जारी किया जिसमे कहा के :- "मरकज़ी चीफ़ मिनिस्टर (नेहरु) और उनके रफ़क़ा की वहां मुसलसल मौजुदगी ही बिहार की कहानी बख़ुबी बयान कर रही है.

6 नवंबर को नोआखाली में गांधी की इस घोषणा के बाद कि जब तक बिहार का पालगपन बंद नहीं होता, वे हर रोज आधे दिन का उपवास रखेंगे, बिहार की हिंसा में एकदम से कमी आ गई थी. इस बात की दाद देनी होगी कि बिहारी हिंदूओ ने पागलपन और बदले की आग में भी गांधी की अदब करना नहीं भूला था।

मुसलमानो का कांग्रेस पर एैतमाद बिलकुल ही उठ चुका था क्युंके बिहार मे हुए फ़साद की जड़ कांग्रेसी वर्कर ही थे; फिर भी मुसलमानो का हौसला इतना ज़रुर बरक़रार था के वो हालात का मुक़ाबला बिहार मे रह कर करना चाहते थे। 

इसलिए जानलेवा बिमारी मे मुबतला होने को बाद भी सैयद अब्दुल अज़ीज़ ने फ़सादज़दह इलाक़ो के मुसलमानो की आबादकारी के लिए एक एैसी स्कीम पेश की जिसे लीग और कांग्रेस दोनो हलक़ो के मुसलमानो ने पसंद किया और इसपर हुकुमत से बाते भी कीं, मगर अभी ये बात चल ही रही थी के बंगाल के वज़ीर ए आज़म 'सैयद शहीद सहरवर्दी' ने यहां आकर ये एलान कर दिया के हम बंगाल मे मुससमानो को बसाने के लिए तैयार हैं और इस सिलसिले मे तबाहशुदा मुसलमानो के लिए उन्होने आसंनसोल मे रिलीफ़ कैंप खोला जिसके बाद तबाहशुदा मुसलमानो का रुख़ उस जानिब हो गया और आज भी वहां बड़ी तादाद मे बिहारी मुसलमान रहते हैं। 

चुंके इसी बीच कांग्रेस और लीग हिन्दुस्तान के बटवारे करने पर अमादा हो गई इसलिए आम मुसलमान भी ज़मीन जाएदाद बेच कर बंगाल मे बसने लगे और कुछ लोग ने मिलकर कराची मे एक छोटी सी बिहारी कलानी बसाई।

बहुत कम दाम मे बनिए ने खेतों को ख़रिदा था,
हम उसके बावजुद उस पर बक़ाया छोड़ आए हैं.

पर इन तमाम हालात के बाद बहुते बड़ी तादाद मे वोह उजड़े हुए मुसलमान भी थे जो किसी भी हाल मे बिहार की सरज़मीन को छोड़ने को तैयार नही थे.. ये लोग अपने गांव तो वापस नही गए पर आस पड़ोस के बचे हुए मुसलिम आबादी वाले गांव, क़सबे और शहर मे बस गए..

ज़मीने मुंतक़िल करते हुए एक कोरे काग़ज़ पर,
अंगुठा कब लगाया था, अंगुठा छोड़ आए हैं..!

लेकिन ज़मीन बेचने वाले और ख़रीदने वालों के बीच की भगदड़ कम होने का नाम नही ले रही थी तो आख़िर मे तंग आकर डॉ सैयद महमुद और दिगर मुसलिम नेताओं ने गांधी जी से नोआखाली का दौरा रद कर बिहार आने की इलतेजा कर डाली। 

आख़िर 5 मार्च, 1947 को गांधी जी बिहार पहुंच गए; वही बिहार जहां 1916 में उन्होंने चंपारण में आंदोलन मे शिरकत किया था मौलाना मज़हरुल हक़ के साथ. यही तो वोह ज़मीन थी जिसने मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाया था।

6 नवंबर 1946 को बिहार की हिंसा पर तो गांधी के नोआखाली वाले अनशन ने ही काफी हद तक नियंत्रण कर लिया था, अब असल काम था उजड़े हुए घरों को फिर से बसाना।

गांधी जी ने अपने कांग्रेसी साथियों को फटकार लगाई और यहां तक कह दिया, ‘‘कांग्रेसी सत्ता पाकर सुस्त हो गए हैं, उनकी अहिंसा एैश ओ आराम में डूबी जा रही है.’’

उन्होंने कांग्रेस से तुरंत गलती स्वीकारने और जांच आयोग बैठाने को कहा(आज तक जांच नही हुआ). जिन कांग्रेसियों ने दंगों में हिस्सा लिया था, उन्हें पुलिस के सामने आत्मसपर्पण करने का आदेश दिया. 

कांग्रेस के लोगों ने गांव-गांव जाकर पुनर्निर्माण का काम शुरू कर दिया. उन्हे ख़ान अब्दुल ग़़फ़्फ़ार ख़ान के ख़ुदाई ख़िदमतगार के रज़ाकारो ने काफ़ी मदद पहुंचाई।

रिलीफ़ कैंपों का दौरा गांधी जी लगातार कर रहे थे, इन कैंपों के लिए उन्होंने एक लिखित रुल भी तैयार कर दी. गैर-सरकारी तंज़ीमो का तौर-तरीका कैसा होना चाहिए, लोकतंत्र में मंत्री का क्या दायित्व है, ये सब बातें उन्होंने कांग्रेस मंत्रिमंडल को सलीक़े से समझाईं।

इस तरह से अपनी तहज़ीबी रवायात को को दुनिया की सबसे बड़ी नेमत समझने वाले बिहार के मुसलमान ना चाहते हुए भी तीन हिस्सो में बट गए.. बड़ी तादाद मे लोग बिहार से बाहर नही गए और वो वहीं रह गए और आज वो बिहार और हिन्दुस्तान के स्तुनो मे से एक हैं। लेकिन ......

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सुना छोड़ आएं है.

बिहार के मुसलमान एक छोटा सा हिस्सा कराची और सिंध के हैदराबाद मे बसा और आज के पाकिस्तान में वे मुहाजिर बनकर जी रहे हैं औऱ लाखो की तादाद मे जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे उर्दूभाषी मुसलमान बंगाली मुसलमानों के बीच खप ही नहीं पाए। आज तक वे वहां बिहारी मुसलमान कहे जाते हैं। शुरु मे तो उन्होने मेहनत औऱ लगन से ख़ुब तरक़्की़ की पर 1970 के बाद हालात बदल गए, 71 की जंग मे लाखो की तादाद मे उनका क़त्ल ए आम हुआ; जो पैसे वाले थे वो कराची और सिंध मे बस गए... बाक़ी आज भी लाखो की तादाद में फंसे हैं बंगलादेश के सो कॉल्ड राहत शिवर में। बाक़ी........

मियां कह कर हमारा गाँव हम से बात करता था,
ज़रा सोंचो तो हम भी कैसा ओहदा छोड़ आएं है.?

HeritageTimes.in

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