एक #मोटी_राखी हुआ करती थी, बडी सी #फोम वाली
एक #मोटी_राखी हुआ करती थी, बडी सी #फोम वाली...
उपर शुभ लाभ बैठे होते थे..
दो_रूपये से लेकर पाँच रूपये तक की मोटी सी बडी़ राखी #गांव की दुकानों में मिला करती थी.. वो दुकानें जो प्रतिबिंब हुआ करती थी सादगी की...
बहनें तब #रोड़वेज बस से आया करती थी..
जैसे ही बस, बस अड्डे पर आती..हम भाग लिया करते थे...एक पुराना झोला..जिसमें #बताशे_गुड़, नारियल हुई करती थे...और खुशकिस्मती से बहन अगर, किसी बड़े से #कस्बे में ब्याही है तो फिर फल के नाम पर हुआ करते थे दर्जन भर #केले...
ये वो #दौर था जब राखी बंधवाने का इतना #शौक की जब तक #कलाई_से_कोहनी तक सब कुछ धागों से भर ना जाता तब तक चैन नहीं पड़ता था...
मुंह में घुमते उस गुड़ की मिठास आजकल के डिब्बे वाली मिठाई से हजार गुना बेहतर लगती थी।
फिर जेब से एक मुड़ा तुड़ा ग्रामीण पृष्ठभुमि को परिलक्षित करता हुआ, #ट्रैक्टर_छाप पाँच #रूपये का कागज का नोट पाकर बहन इतनी खुश हो जाया करती थी कि जैसे उन्हे कुबेर का #खजाना मिल गया हो...
#शाम को घर में #खीर_पूडी़ का दौर चलता..
राखी का धागा इतना #पवित्र माना जाता कि आस #पडौ़स की लड़कियों से भी राखी बंधवाने में कोई परहेज नहीं था...
मतलब रक्षा वचन, संस्कृति में इतना घुला मिला था कि बहुत सी बातें अंडरस्टूड हुआ करती थी...
पर अब वक्त बदल गया..
#कच्चे_मकान गोबर और सफेदी की पुताई का चोला उतार कर #कंक्रीट के जंगलो में तब्दील हो गये और दिखावे का उबटन लगाकर हमने बना ली उन जंगलो के चौतरफा खानापूर्ति की #दीवारें जिसमें बस अब #औपचारिकता की हवा आती है..
दो रूपये की फोम की राखी की जगह #चाईनिज राखियों ने ले ली और गुड़ का अपडेटेड वर्जन भी आ गया....
चीजें बदली तो संस्कार भी बदल गये...
रक्षा सुत्र #कोरियर होने लगा और बहनों की जगह बस से '#अमेजॉन' का लिफाफा उतरने लगा..
दस के नोट को दस गुना बढा़कर ऑनलाइन पेमेंट किया जाने लगा..और चेहरे पर मुस्कुराहट रिश्तों की गर्माइश से नहीं वरन केशबैक से छाने लगी...
वक्त ऐसा कि वक्त ही ना बचा,
बहने जिस दिन आती है, उसी दिन चली जाती है।
वाकई अब बहनें बस से नहीं आती...
अब भाई दस का नोट नहीं निकालता..
अब पडौ़स से राखी नहीं आती....
अब गुड़ मिलावटी हो गए...
नहीं बदला तो भाई बहन का प्रेम.…
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