कामरेड विलुप्तप्राय प्रजाति है। यह अक्सर कॉफी हाउस

कामरेड विलुप्तप्राय प्रजाति है। यह अक्सर कॉफी हाउस जैसी जगहों पर पाई जाती है। अक्सर सरकारी नौकरी वाले कॉमरेड होते हैं जिनके पास पर्याप्त फुर्सत होती है। ऐसे लोग भी कामरेड पाए जाते हैं जिनके घर का आधा खर्च बीवियां चलाती हैं और उन्हें आर्थिक चिंता कम होती है।

कामरेड्स अक्सर ज्ञानी पाए जाते हैं, काफ्का, हर्नांदेज, गोर्की से शुरू करते हैं और भारतीय साहित्य में बहुत गिरने पर नागार्जुन, मुक्तिबोध तक उतरते हैं, किसी जिंदा कवि का नाम भी नहीं ले सकते।राजनीति में मार्क्स से शुरू करते हैं, हीगल, कांट, फिक्टे, बाकुनिन, क्रोपाटकिन प्रौदा तक पहुंचते चुक जाते हैं और कभी कभी भगत सिंह तक पहुंचते हैं। 

कामरेड्स को आम पीड़ित नागरिकों से सिर्फ इतना मतलब होता है कि इनको चेला बनाया जाए। किसी को मित्र नहीं बनाते, क्योंकि इनके जोड़ का ज्ञानी धरती पर होता ही नहीं है। अगर आप इनके जीवन में काम आ सकते हैं, इनके बढ़ने में आर्थिक सामाजिक मदद कर सकते हैं, तभी आप इनके दोस्त बन सकते हैं। 

दोस्त बनने के लिए जरूरी नहीं कि आप मार्क्स के नाम भी जानें या पढ़े लिखे हों। आप जर्जरात संघी हों, सपाई हों, बसपाई हों, आपी हों, कोई दिक्कत नहीं होगी। जरूरी है कि आप काम के आदमी हों। जब कामरेड का कोई चेला पूछेगा कि सर ऊ संघिया से आप कैसे चिपके रहते हैं तो यह बताएंगे कि लड़ाई तो वैचारिक होती है साथी.... व्यक्तिगत मित्रता अपनी जगह है। 

कामरेड्स कभी किसी की मदद नहीं करते, अगर कोई समस्या में फंसा है तो उसे व्यवस्थागत खामी बताकर मरने को छोड़ देते हैं या अब ऐसे मसलों को लेकर सोशल मीडिया पर हाय हाय करते हैं जिससे उन्हें संवेदनशील मानकर नए मुर्गे फंस सकें।  

कुछ युवा-बच्चे भी कामरेड पाए जाते हैं जिनके दिमाग मे छात्र जीवन मे कामरेडई का कीड़ा घुस जाता है। ऐसे बच्चे इस ताक में रहते हैं कि बड़े कामरेड उनको सेटल करा देंगे। बड़े कामरेड को सर सर कहने वाले चेले मिल जाते हैं। इस तरह कामरेडों की एक छोटी गिरोह बन जाती है।

कांग्रेस के टाइम ऐसे कामरेडों को कोई खास समस्या नहीं होती थी। सरकारी तंत्र में यह सेट होते थे। राजनीति में इन्होंने 65 दल बना रखे थे। कांग्रेस भी जानती थी कि इन गुटों को खिलाते पिलाते रहना है, यह कभी सत्ता में नहीं आएंगे।

कामरेडों का मुख्य काम सांप्रदायिकता और गरीबी को लेकर हाय हाय करना था। उसी के मुताबिक कांग्रेस भी रणनीति बनाती, खासकर सांप्रदायिकता के खिलाफ हाय हाय करके। इसमें आरएसएस निशाने पर रहती थी। इन्हें भारत में भयानक जातीय समस्या कम ही दिखती थी, क्योंकि सत्तासीन कांग्रेस भी नहीं मानती थी कि भारत में जाति कोई समस्या है। भारत के कामरेड्स वर्ग संघर्ष में आस्था रखते हैं, जो भारत में जातीय कैडर में विभाजित है। कामरेड्स उस समय मजदूरों को एक करते थे, जब सरकारी संस्थान थे और ये सरकारी संस्थानों के खिलाफ आंदोलन चलाते थे। अब जब पूंजीपति और मजदूर में असल में टांका फंसा है तो कामरेड्स लाचार और गायब हैं। 

आरएसएस सत्ता में आई तो सबसे पहले उसने कामरेडों को निशाने पर लिया। इसकी वजह यह है कि इन्हीं कामरेड्स ने आरएसएस को अछूत बना रखा था, वर्ना कांग्रेस तो आरएसएस को अपने अंदर समाहित ही रखती थी। अगर जवाहरलाल नेहरू को छोड़ दें तो पंडित गोविंद बल्लभ पंत से लगायत राष्ट्रपति तक संघी रुझान के लोग ही कांग्रेस में शीर्ष पर रहते थे। 

भाजपा सरकार ने तमाम कामरेड को सेट किया, जो अपर कॉस्ट थे और जातीय गोटी फिट कर ले गए। तमाम छोटे मोटे कॉमरेड्स तेल लगाते रह गए लेकिन सरकार ने जगह नहीं दी। यूं समझें कि कॉमरेड्स के मान सिंह लोग भाजपा के साथ सेट हैं, जिनकी बड़ी रियासतें थीं। और छोटे मोटे कॉमरेड्स, जिनको भाजपा ने सेट नहीं किया, वह राणा प्रताप बने हुए हैं और घास की रोटी खाकर तलवार भांज रहे हैं। बेचारगी को प्राप्त तमाम कॉमरेड आजकल कांग्रेस नाम के मरते जीव के पैरासाइट बन रहे हैं।

Shravan ने एक सवाल पूछा कि कॉमरेड्स बंगलौर में कहां पाए जाते हैं, उनकी मदद के लिए सुबह सबेरे एक 'संक्षिप्त' टिप्पणी।

#भवतु_सब्ब_मंगलम

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