1996 में अल जजीरा बना था, महज एक अरबी चैनल के रूप में बना। तब

1996 में अल जजीरा बना था, 

महज एक अरबी चैनल के रूप में बना। तब मिडिल ईस्ट के देशों में तब कोई स्वतंत्र चैनल नही था।

स्टेट चैनल होते थे, जिनका काम देश के नेता का गुणगान करना, अच्छे दिनों का बखान करना, और खबरों को दिखाने की बजाय दबाना होता था। 
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तो अल जजीरा मिडिल ईस्ट के रेगिस्तान में एक नई हवा बना। सन्तुलित, निष्पक्ष कंटेंट, जमीनी रिपोर्टिंग, वो सुनाता कम, दिखाता ज्यादा..

जो जहां जैसा है, देखिये। बोलने का मौका सभी पक्षों को मिलता। अरबी चैनल होने के बावजूद अंग्रेजी को भरपूर तरजीह दी। 

दुनिया के बड़े और नामचीन पत्रकारों को जोड़ा। जर्नलिज्म के एथिक्स तय किये। दुनिया मे बीबीसी की जो वकत है, जो आदर्श हैं, जो शांत विचारण है, वह अल जजीरा के लिए तय किया गया मॉडल था। 
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उस दौर में जब अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, 9-11, अरब स्प्रिंग जैसी घटनाएं हो रही थी, अल जजीरा ने कमाल किया। 

हैरतअंगेज जमीनी रिपोर्ट, लाइव वार जोन, जान हथेली पर लेकर चलते पत्रकार। 10 से ऊपर पत्रकार मारे जा चुके, कुछ कैप्चर हुए, बहुतेरे घायल। लेकिन न अल जजीरा डरा, न उसके निडर पत्रकार। 
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उसने तस्वीर का दूसरा रुख भी सामने रखा। अरब, इजराइल, अलकायदा को भी अल जजीरा का माइक मिला। 

कोई पक्ष कुछ भी बोले, तय तो व्यूवर को करना था, की विश्वास किसका करे। तो व्यूवर ने चाहे जिसके पक्ष का यकीन किया हो, भरोसा हमेशा अल जजीरा का बढ़ता गया।
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आज अल जजीरा दुनिया के हर देश के ऑपरेट कर रहा है। उसके कवरेज, उसकी खबरें, उसके एंकर, उसके कंटेंट को बियॉन्ड डाऊट एक्सेप्ट किया जाता है। लेकिन मैं आपसे अल जजीरा की बात नही कर रहा। 

मेरी बात तो कतर की है। 
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मिडिल ईस्ट के इस अनजान देश के शाह ने, इस चैनल को शुरू कराया। काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी। 

अब 25 साल में अल जजीरा ने कतर को वह हैसियत दे दी, की वो मिडिल ईस्ट की एक प्रमुख राजनीतिक ताकत बन गया है। दोहा, अब एशिया का नॉर्वे बन गया है। 

वह तालिबान अमेरिका के बीच शांति वार्ता करवा रहा है। यमन के विद्रोही गुटों में शांति करवा रहा है। अरब इजराइल विवाद और गाजा पट्टी के मामलों में मध्यस्थता कर रहा है। 

जिस देश की अदरवाइज कोई औकात नही, महज एक न्यूज नेटवर्क के दम पर वैश्विक ताकत बन चुका है। 
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मध्यपूर्व की जियोपोलिटिक्स में, अब कोई फैसला कतर को नकार कर नही हो सकता। कोशिश की गई थी, चार साल पहले जब कतर पर ब्लोकेड किया गया।

मिडिल ईस्ट के देशों ने ब्लोकेड हटाने के लिए इस चैनल को बन्द करने की शर्त रखी। कतर ने नही माना, विरोधियों को ही झुकना पड़ा, 

लेकिन कतर की बढ़ती हैसियत में अल जजीरा का महत्व दुनिया ने समझ लिया। अल जजीरा अपनी रजत जयंती मना रहा है।
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25 साल पहले भारत मे भी सेटेलाइट क्रांति हुई, चैनल आये, न्यूज स्वतंत्र हुई। 

अब सरकारी टेलीविजन पर हम निर्भऱ नही थे। लगता था, दस बीस सालों में हिंदुस्तान भी, कोई बीबीसी, कोई अल जजीरा पैदा कर लेगा। 

पर ऐसा हो नही सका है। हमारे चैनल रद्दी का टोकरा और सरकारी माउथपीस बन गए हैं। 

सरकारी विज्ञापन, नफरत की खेती, कूड़ा बहसें, बेकार मुद्दे, खराब रिसर्च और एकपक्षीय कवरेज ने भारत के चैनलों को वैश्विक स्तर पर मजाक बना दिया है। 
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कारपोरेट पोषित पत्रकारिता के साथ, प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हम अफ्रीकी तानाशाहियों के बीच बैठे है। विदेशी चैनल हंस रहे है, हमारी न्यूज फुटेज दिखाकर। 

जहां युध्द के वीडियो गेम को अफगानिस्तान की फुटेज बताई गयी है। बुलेट प्रूफ में इठलाती एंकरानियाँ गाजा में उल जलूल हरकतें कर रही हैं।

फेक न्यूज, फेक मुद्दे अब भारतीय चैनलों की यूएसपी है। यहां ड्रग दो, ड्रग दो के तमाशे है। हिन्दू मुस्लिम शोर ,बैठ जा मौलाना की धमकियां हैं।
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पैसे किस एंकर ने कितने कमाए, कौन जाने। पर यह हम जानते हैं, कि भारत किसी अल जजीरा जैसे चैनल के बूते, कतर की तरह वैश्विक सीढियां चढ़ने से महरूम रह गया। 

भारतीय मीडिया ये कर सकता था, मगर किया नहीं। तो क्या यह अपने आपमे देशद्रोह नही। पैसों के लिए देश को पीछे धकेल देना, और क्या कहलाता है?? 

इस देशद्रोही प्रसारण के दर्शक, टीआरपी दाता, अगर आप भी थे, तो आप क्यो देशद्रोही नही गिने जाएं, सोचकर बताइएगा। 
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और यह भी सोचिये, की ऐसे कितने क्षेत्र है, जिसमे अगुआ बनने का अवसर हमने इस जहालत के दौर में खोया है। 

कितने टैलेंट जात धर्म की लड़ाई में बर्बाद किये है। कितना विमर्श, समय, बहसें हमने उन चीजों पर खर्च किये, जिसका कोई हासिल नही। 

पलटकर हमारी अगली पीढ़ीयां जब देखेंगी...तब पाएंगी कि हमने भारत को वहां तक ले जाकर नही छोड़ा, जिसका हममें पोटेंशियल था, जिसका अवसर खुला था.. बल्कि पीछे धकेल दिया।   

तो क्या हमें एक देशद्रोही पीढ़ी के रूप में याद नही करेगी???
मनीष सिंह की वाल से

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