और इन्ही जैसे आदिवासियों के लिए इंसाफ़ मांगने के इल्ज़ाम में Himanshu Kumar को जेल भेजा जा रहा है।
और इन्ही जैसे आदिवासियों के लिए इंसाफ़ मांगने के इल्ज़ाम में Himanshu Kumar को जेल भेजा जा रहा है।
अगर हम आप, जो अपने लोकतन्त्रवादी होने पर गर्व करते हैं, उन्हें जेल जाने से नहीं रोक सके तो क्या इन जैसे आदिवासियों को माओवादी गुरिल्ला होने से रोक लेंगे?
यह जरूरी सवाल है, क्योंकि यह सब कुछ हमारे नाम पर हमारे मौन समर्थन से हो रहा है। अगर 75 लंबे वर्षों में हम आदिवासियों को इंसाफ़ की उम्मीद भी नहीं दे सके तो इसे आज़ादी का अमृत महोत्सव कहें या मृत महोत्सव?
पढ़िए, एक औऱ सत्य-कथा। हिमांशु कुमार के आंगन से।
******
"सोमड़ू मर गया"
दंतेवाडा से एक फ़ोन आया कि सोमड़ू म़र गया ၊
मैंने पूछा कैसे मर गया ?
मुझे बताया गया की तेंदू पत्ता तोड़ते समय कल उसे सांप ने काट लिया और कुछ ही देर में वो म़र गया,
न्याय का इंतज़ार करते करते सोमड़ू म़र गया,
कौन था ये सोमड़ू ?
सन दो हजार आठ की ये घटना है,
भैरमगढ़ से बीजापुर जाने के रास्ते में माटवाडा नाम का एक सलवा जुडूम कैंप है,
18 मार्च 2008 को स्थनीय अखबार में खबर छपी कि माटवाडा सलवा जुडूम कैंप में रहने वाले तीन आदिवासियों की नक्सलियों ने कैंप में घुस कर हत्या कर दी है,
खबर पर विश्वास नहीं हुआ,
क्यों की यह एक छोटा सा कैंप है,
सड़क के किनारे सारे आदिवासी अपनी झोपडी में रहते हैं,
बीच में एक पतली सी सड़क गुज़रती है,
और सड़क के इस तरफ पुलिस चौकी है,
आदिवासियों की झोपड़ियों के पीछे की तरफ सीआरपीएफ का कैंप है,
लेकिन सच्चाई कैसे पता चले ?
अचानक मेरा साथी कोपा गायब हो गया,
मैं कोपा के बिना बताये गायब होने पर आश्रम में चिन्ता कर रहा था,
दो दिन के बाद मुकुराते हुए कोपा सामने आ गया,
उसके साथ एक नौजवान और भी था,
मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछा की ये कौन है?
कोपा ने कहा आप ही पूछ लीजिये,
उस लड़के ने दिल दहला देने वाली कहानी सुनायी,
उस लड़के ने बताया की जो तीन आदिवासियों के नक्सलियों के हाथों मारे जाने का समाचार छपा है,
उन तीन मारे गए लोगों में से एक मेरा भाई है,
और इन तीनों को नक्सलियों ने नहीं पुलिस ने मारा है,
लेकिन हम लोग कभी भी बिना पूरी तहकीकात के किसी मामले में कार्यवाही नहीं करते थे,
इसलिए मैंने उस नौजवान से कहा की मारे गए तीनो लोगो की पत्नियाँ कहाँ हैं ?
उसने कहा कि तीनों विधवायें सलवा जुडूम कैंप में ही हैं,
मैंने कहा उन्हें लाना होगा,
कोपा बोला ये ज़िम्मेदारी में लेता हूँ,
और अगले दिन सुबह मारे गए उन तीनों आदिवासियों की पत्नियां हमारे आश्रम में आ गयी,
साथ में कोपा उनके गाँव के सरपंच और पटेल को भी लेता आया था,
उन लोगों को मैंने अलग अलग बैठा कर पूरी घटना का विवरण देने को कहा,
अन्य गवाहों से भी पूछा,
अब संदेह की कोई भी गुंजाइश नहीं बची थी,
सब का विवरण एक ही जैसा था,
अब सिद्ध हो गया था की ये सरकारी सलवा जुडूम राहत शिविर नहीं यातना शिविर हैं,
घटना इस प्रकार की थी,
इस गाँव के आदिवासियों को जबरन तीन साल पहले इस कैम्प में लाकर रखा गया था,
पुलिस ने इनके गाँव के आठ लोगों की हत्या करी थी और इनके पूरे गांव के घरों को जला दिया था,
ये आदिवासी लोग तब से इन कैम्पों में मजबूरन रह रहे थे,
सरकार ने शुरू में तो इन्हें इन कैंपों में रखते समय कहा था की कैंप में खाना पीना सब मिलेगा,
लेकिन वो सब तो सलवा जुडूम के नेता बीच में ही गटक जाते थे,
भूख के मारे गांव वालों ने पेट भरने के लिए आस पास सरकारी सड़क बनाने के नरेगा के काम में जाना शुरू किया,
पर उसमे भी आधी मजदूरी नेता और पुलिस वाले मार देते थे,
तब आदिवासियों ने गावों में जा कर महुआ बीनना और धान उगाना शुरू कर दिया,
लेकिन सब को रात होने से पहले कैंप में वापिस आ कर पुलिस के सामने हाजिरी लगानी पड़ती थी,
ज्यादा रात को लौटने वाले आदिवासियों की पिटाई की जाती थी,
कि तुम लोग गाँव जाने के बहाने ज़रूर तुम नक्सलियों की बैठक में गए होगे,
एक रात ये चार आदिवासी ज्यादा रात हो जाने पर पिटाई के डर से गांव में ही रुक गए,,
इन्होने सोचा की कल दिन में चुपचाप अपने घर में घुस जायेंगे,
और बोल देंगे की हम तो कल शाम को ही आ गए थे,
और इन्होने ऐसा ही किया,
लेकिन इसकी जानकारी वहां के एसपीओ लोगों को मिल गयी,
उन्होंने वहां पुलिस चौकी के इंचार्ज एएसआई पटेल के साथ मिल कर,
इन चारों आदिवासियों को अनुशासन तोड़ने की सजा देने का निर्णय किया,
सजा देने के लिए पुलिस वालों और एस पी ओ ने पहले जम कर शराब पी,
उस के बाद पुलिस द्वारा इन चारों आदिवासियों को घरों में घुस कर खींच कर बाहर लाया गया,
इनकी पत्नियों ने जब इन्हें बचाने की कोशिश की तो सिपाहियों द्वारा उन्हें भी बन्दूक के बट से मार मार कर लहूलुहान कर दिया गया ,
फिर इन चारों आदिवासियों के हाथ उन्ही की लुंगियां खोल कर पीछे बांध दिए गए,
और इन्हें पुलिस द्वारा सड़क पर लाया गया और मोटे मोटे डंडों से चारों की पिटाई शुरू की गयी,
थोड़ी देर में चारों आदिवासी बेहोश हो गए,
थानेदार द्वारा बाल्टी भर पानी मंगाया गया,
और उन चारों आदिवासियों पर डाला गया,
उन्हें थोडा होश आया,
उन चारों में सोमड़ू भी एक था,
अँधेरा हो गया था,
सोमड़ू मौके का फायदा उठाकर सरकते हुए एक झाड़ी में चला गया,
और अपने हाथों में बंधी लूंगी खोल कर गिरता पड़ता कुछ दूर पहुंचा,
वहाँ गाँव वालों ने उसे पानी पिलाया,
किसी ने उसे अपने घर में बकरियों के साथ छिपा दिया,
इधर इन तीनो आदिवासियों की पिटाई शाम से रात के आठ बजे तक चलती रही,
अंत में लगभग सब शांत हो गए थे,
फिर उनकी सज़ा पूरी करने का वक़्त आया,
पुलिस ने चाकू से तीनोआदिवासियों की आँखे निकाल दीं,
इसके बाद तीनो के माथे पर चाकू खड़ा कर के पत्थर से उसे सर में ठोक दिया गया,
इसके बाद पुलिस ने तीनो की लाशों को पास में नदी के किनारे रेत में दफना दिया,
हमने मारे गये इन तीनों आदिवासियों की पत्नियों को मीडिया के सामने बैठा दिया,
और कहा की आप भी सच्चाई निकालने की कोशिश करिए,
इसके बाद ये मामला छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में दायर किया गया,
इन तीनों महिलाओं को मैं अपने प्रदेश के तथाकथित सहृदय साहित्यकार डीजीपी विश्वरंजन के पास ले गया,
वो बोले ठीक है मुझे अब कुछ नहीं पूछना है,
लेकिन बाद में उन्होंने पत्रकारों से कहा की इन महिलाओं के पतियों को नक्सलियों ने ही मारा है,
पर ये महिलायें नक्सलियों के कहने से पुलिस पर झूठा इल्ज़ाम लगा रही हैं,
इस विषय में मेधा पाटकर ने भी डीजीपी साहब को एक पत्र भी लिखा,
जिसके जवाब में उन्होंने कहा की हिमांशु तो झूठ बोलता है,
बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की जांच में भी इस मामले में पुलिस की भूमिका पर संदेह व्यक्त किया गया,
अभी इस मामले में आरोपी पुलिस का एएसआई पटेल और दो एसपीओ जेल में हैं,
तीनो महिलाओं को अंतरिम राहत के रूप में एक एक लाख रुपया अदालत के आदेश से मिला,
सोमड़ू का एक हाथ और तीन पसलियाँ पुलिस की मार से टूट गयीं थीं,
और वह अपने और अपने साथियों के साथ हुए ज़ुल्म के खिलाफ फैसले के इंतज़ार में था,
लेकिन आज खबर आयी की सोमड़ू मर गया,
और उसी के साथ सोमडू का इंतज़ार भी म़र गया!
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
THANKS FOR YOUR COMMENT