जिस तरह मूसा(अ०स०) की परवरिश ज़ालिम फिरऔन के मह़ल में हुई थी , लगभग उसी तरह उसकी भी परवरिश वह़शी मंगोलों के बीच में हुई थी ,

जिस तरह मूसा(अ०स०) की परवरिश ज़ालिम फिरऔन के मह़ल में हुई थी , लगभग उसी तरह उसकी भी परवरिश वह़शी मंगोलों के बीच में हुई थी , तीरंदाज़ी तलवार बाज़ी की महारत भी उसने मंगोलों से ही सीखी थी , वह एक "ग़ुलाम" लेकिन क़पचाक़ तुर्क था..
कहते हैं मंगोलों ने दमिश्क के बाज़ार में उसे 500 दीनार के एवज़ में एक समुंदरी ताजिर के हाथ बेचा था , उस व्यापारी ने उसे अपने व्यापारिक जहाज़ पर एक माहिर तीरअंदाज़ के तौर पर तैनात किया था..
लेकिन क़ुदरत को कुछ और ही मंज़ूर था , एक दिन क़िस्मत ने उसे उस मिस्र का सिपहसालार बना दिया जहां भारत की तरह ही एक ग़ुलाम वंश राज कर रहा था , 
मंगोलों के ज़ुल्म के आगे पूरी इस्लामी दुनिया बिखर चुकी थी , सलजूक सल्तनत अपनी आखिरी सांसें गिन रही थी तो ख़िलाफत-अब्बासिया के आखिरी ताजदार मुस्ता'असिम बिल्लाह को हलाकू खान ने क़ालीनों में लपेटकर घोड़ों तले रौंद डाला था..
अल्लाह की क़ुदरत देखिए कि बारहवीं सदी ई० के मध्य में मुसलमानों के पास सिर्फ दो मह़फूज़ पनागाह थी एक हिंदुस्तान और दूसरी मिस्र और दोनों ही जगह ग़ुलाम वंश का राज था यानि ऐसे लोग जिनके ह़स्ब-नस्ब का कुछ पता नहीं... बचपन से ग़ुलाम थे , इस्लाम क़बूल किया और अल्लाह ने उन्हें इस्लाम की पासबानी के लिए चुन लिया.
अब मौज़ू'अ पर आते हैं... हलाकू ने बग़दाद को ताराज किया , फिर शाम की सरह़द में दाखिल हुआ गांव के गांव तबाह करता हुआ हलाकू ह़लब पहुंचा और शहर की ईंट से ईंट बजा दी , बग़दाद की तरह ह़लब में भी रोने वाला कोई नहीं था , शाम को तबाह करने के बाद हलाकू की आखिरी मंज़िल मिस्र थी जिसके बाद लगभग पूरी इस्लामी दुनिया ख़त्म हो जाती...
हलाकू ने अपने एलची मिस्र दौड़ा दिए जहां ममलूक(ग़ुलामवंश) खानदान राज कर रहा था , वहां उनका सामना उसी सिपहसालार से हुआ जिसको कभी मंगोलों ने ही दमिश्क़ में बेच दिया था...
वह कोई और नहीं , सिपहसालार "रूकनुद्दीन बैबरस" था जो ममलूक बादशाह "सैफुद्दीन क़ित्ज़" के मातह़ती में ममलूक फौज की कमान संभाले हुए था...
ताक़त के नशे में चूर मंगोल एलचियों ने ममलूक दरबार में हुक्म सुनाया कि मिस्र हथियार डाल दे वरना उसका ह़श्र बग़दाद और ह़लब से भी बद्तर कर दिया जायेगा...दरबारी डरे सहमे हुए मंगोलों का हुक्म सुन रहे थे लेकिन सिपहसालार "बैबरस" के दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था...वह अचानक उठा और भरे दरबार में ही तमाम मंगोलों के सर काट दिये..."बैबरस" यहीं पर नहीं रूका बल्कि मंगोलों के कटे हुए सर को उसने मिस्र के मुख्य चौराहे पर लटका दिए...
कहते हैं इसके पीछे "बैबरस" की हिक्मत थी कि इससे मुसलमानों के दिल में मंगोलों के लिए बैठा हुआ डर ख़त्म हो जायेगा और "बैबरस" की हिक्मत कामयाब भी रही...
"बैबरस" ने उसी वक़्त एक फैसला और लिया...इससे पहले कि हलाकू को खबर लगे कि उसके एलचियों की क्या दुर्दशा हुई है "बैबरस" अपने सुल्तान "सैफुद्दीन क़ित्ज़" के साथ मंगोलों से फैसलाकुन जंग लड़ने के लिए मिस्र से निकल खड़ा हुआ...
सन्-1260 ई० रमज़ान का महीना और फिलिस्तीन के क़रीब ऐन-जालूत का वह तारीख़ी मक़ाम जिसका ज़िक्र क़ुरआन में भी मौजूद है...मंगोलों के एक बाज़ू पर "बैबरस" तो दूसरे बाज़ू पर "क़ित्ज़" बिजली बनकर गिरे , देखते ही देखते वह मंगोल जो सारी दुनिया की अक़वाम के लिए दह़शत बनकर उभरे थे...तारीख़ ने देखा कि गाजर मूली की तरह काटे जा रहे थे , शाम के वह रेगिस्तान जिसे उस वक़्त तक सिर्फ ख़ालिद बिन वलीद(रज़ि०अ०) की छोटी सी टुकड़ी ही पार कर सकी थी आज यानि 25-रमज़ान को मंगोलों को पनाह देने को तैयार नहीं हुआ...शाम के आम बाशिंदे जिनके पास जो भी हथियार थे ऐन जालूत से भागे हुए मंगोलों का शिकार कर रहे थे और एक नई तारीख़ रक़म हो रही थी...मंगोल साम्राज्य के पतन की तारीख़ वह भी किसी अरबी सलजूकी या अब्बासी के हाथों नहीं , मामूली ग़ुलामों के हाथों से जिनका कोई ह़सब-नस़ब नहीं था...मेरा रब ऐसा ही है...वह ह़सब नस़ब और वस़ाएल का मोह़ताज नहीं..!!

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