पदम... ओ... पदमनवंबर आ गया है.

पदम... 

1
पदम... ओ... पदम
नवंबर आ गया है...
मेरे प्रिय फूल सारे जा चुके हैं ना जाने कहाँ...
और फूलों के तो प्रेत भी नहीं भटकते...
पेड़ तो जानते ही नहीं आत्मा...
ओह उनका रूह से विहीन दर्द...
बिलकुल दैहिक एकदम भौतिक 
पत्तियों के गिर जाने से पेड़ों पर बने घाव भरने में वक़्त लगता है...
पत्तियों का गिरना चुभता है मुझे...
देखो तो उड़ती हुई चिनार की कंटीली पत्तियां...

दैहिक दर्द ! भौतिक पीड़ा!

पदम...मैं बसंत के इंतज़ार में हूँ... मैं अपने उजाड़ के साथियों की बाट जोह रहा हूँ... वो पहुँचते होंगे... और हम मिलेंगे उदासियों के तल में... वही जगह हैं जहाँ मिलने में कोई अवरोध नहीं होता...

मैं अपने दुःखो का शुक्रगुज़ार फूलों की मौत पर रोने बैठता हूँ तो तुम खिल जाते हो...ठीक उसी वक़्त जब मेरे आँसू मेरी आँखों के भीतर ही ढूंढ रहे होते हैं ठंडी और नम जगह... तुम मेरे मस्तिष्क में दौड़ने लगते हो...ये गुलाबी रंगत तुम्हारी मुझे मेरे दुःखो को जीने नहीं देती...

ओह मेरे आत्मा से विहीन दुःख
बिलकुल दैहिक एकदम भौतिक 

पदम...
क्या कहना चाहते हो??
तुम क्या दिखाना चाहते हो??
तुम मेरे दुःखो को छीन लेना चाहते हो
क्या तुम प्रतिस्थापन हो... मेरी अनगिनत अनाम मर चुकी दोस्तियों के... क्या तुम उन रिश्तों की जगह ले सकते हो जिन्हें मैंने ख़ुद नहीं पनपने दिया... वो जो मेरे बाद भी यहाँ रहेंगे....मिलेंगे तुम्हें हर नवम्बर 

पदम क्या घमंड है तुम्हें
प्रतिकूल मौसम में मुस्कुराने का...
क्यों आते हो तुम मेरे और मेरी ठंड के एकांत के बीच बनकर गुलाबी पर्दा...

तुम क्या चाहते हो पदम???

2
मुक्त
तुम बात अच्छी कर लेते हो
तुम दुःखो को जीने वाले!
खो चुके फूलों के प्रेमी!
तुम बसंत के मुन्तज़िर!

मुझसे पूछते हो कि
मैं क्या चाहता हूँ...
मैं हूँ अपरिचित तुमसे
लेकिन 
मेरा उतना और वैसा ही संबंध है तुमसे... तुम्हारी दोस्तियों और दुःखो से... जितना बसंत के फूलों का है... शायद तुम इसे नहीं समझ पाओगे...
तुम खिलने के लिये मौसमों पर निर्भर
तुम कविता के लिये भाषा के मोहताज
तुम जिस तरह अपने उजाड़ के साथियों की बाट जोहते हो... मधुमक्खियां और तितलियाँ मेरा इंतज़ार करती हैं...ठीक उसी समय जब तुम्हारे प्रिय फूल सारे जा चुके हैं ना जाने कहाँ...
मैं उनके लिये नहीं खिलता... जैसे तुम्हारे उजाड़ का कोई साथी तुम्हारे लिये नहीं आता...
दुःखो का तल मिलने की जगह तो है...लेकिन वहाँ भी एक अवरोध है... वो मैं नहीं हूँ... दुःख ही है वो अवरोध... तुमने ही तो कहा था

"दुःख की नदी में बहकर नहीं सुख के घोड़े पर सवार नहीं "
मुक्त
मैं यहाँ आया हूँ आदिम बेनकाब ज़ाहिर और स्पष्ट

मैं कोई प्रतिस्थापन नहीं हूँ...
मैं हूँ असल मुक्त...निसंग निर्लिप्त... लेकिन द्वन्द्व से युक्त 
मैं भी उजाड़ का साथी हूँ...रिश्तो को पनपने दो... वो तुम्हारे बाद भी यहीं रहेंगे... मैं मिलूंगा उनसे हर नवम्बर 

वो आड़ू का सूखा ठूँठ देखो...वो ज़िंदा है...उसकी खाल के नीचे तैर रहे हैं अनगिनत सूरज... वो मेरी गुलाबी रंगत का अगला जन्म लेंगे... आत्मा से रहित पुनर्जन्म...

मुक्त...पेड़ों को दर्द केवल पत्तियों के गिरने पर नही होता
दर्द होता है... फूलों के पैदा होने पर भी...

ओह
मेरा रूह से विहीन दर्द
बिलकुल दैहिक एकदम भौतिक...

❤❤❤

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